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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् यथातत्त्वमभ्युपगतस्याननुभूयमानत्वेन स्वत एवाऽव्यस्थितत्वात् कुतः तत्त्वव्यवस्थापकत्वम् ? अथ प्रतिभासोपमत्वं सर्वभावानामिति न किंचित् तत्त्वमिति न कुतश्चित् तद्व्यवस्थाऽस्माभिरभ्युपगम्यते येन तदव्यवस्थालक्षणं दूषणं युक्तं भवेत् । असम्यगेतत्, शून्यताया निषेत्स्यमानत्वात् । तस्मात् प्रमाणव्यवहारिणा यदि प्रत्यक्षादिकं प्रमाणमभ्युपगम्यते तदा शब्दोऽपि बहिरर्थे प्रमाणतयाऽभ्युपगन्तव्यः प्रामाण्यनिबन्धनस्य सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थप्रतिबन्धस्य परम्परया तत्रापि सद्भावात् तत्रैव च शब्दाच्चक्षुरादेरिव नियमेन प्रतिपत्ति-प्रवृत्ति-प्राप्तिलक्षणव्यवहारदर्शनात् गुण-दोषयोचोभयत्रापि समानत्वात् ।
न चाऽस्माभिर्मीमांसकैरिवापौरुषेयः शब्दार्थयोः सम्बन्धोऽभ्युपगम्यते येन -
- "विकल्पनिर्मितस्य तस्य नृत्यादिक्रियादेरिव कथमपौरुषेयत्वं स्यात् ? स्वत एव शब्दस्यार्थप्रतिपादनयोग्यतायां संकेताऽदर्शिनोऽपि शब्दादर्शप्रतिपत्तिश्च स्यात्, ततोऽनर्थकः संकेतः । स्वाभाविकसम्बन्धाभिव्यवञ्जकत्वोपयोगकल्पनायां च संकेतस्य यथेष्टं शब्दानामर्थेषु संकेतो न स्यात् । न ह्यभिव्यंजकसंनिधिनियमेनाभिव्यंग्यस्योपलब्धिं जनयति प्रदीपादिरिव घटस्य, शब्दाभिव्यक्तिसांकर्यवत् सम्बन्धाभिव्यक्तिसांकर्यमपि प्रसज्येत । ततश्च संकेतात् सम्बन्धाभिव्यक्तिप्रतिनियमाभावात् तद्विवक्षितार्थप्रतिपत्तिनियमस्याप्यभाव इति सर्वस्माद् वाचकात् सर्वस्यार्थस्य प्रतिपत्तिः सकृदेव प्रसज्येत । ततः संके
बौद्ध : आशंकित स्वभाव के न होने पर भी यदि उस का आश्रय रह सकता है तब तो वह नि:स्वभाव हो जाने की आपत्ति है, इस बाधकतर्क के बल से तादात्म्यमूलक स्वभावहेतुक अनुमान से अव्यभिचारमूलक प्रामाण्य स्थापित होता है । तथा 'कार्य भी यदि विना कारण उत्पन्न होगा तो उस के तत्कार्यत्व का ही भंग हो जायेगा' इस बाधकतर्क के बल से तदुत्पत्तिमूलक कार्यहेतुक अनुमान में अव्यभिचारमूलक प्रामाण्य स्थापित होता है।
जैन : जैसे आप अनुमान में प्रामाण्य स्थापित करते हैं वैसे ही शब्द में भी वह स्थापित हो सकता है । आपके अपने सन्तान में जैसा रूपादिज्ञान उत्पन्न हुआ है वैसा ही श्रोता के सन्तान में ज्ञान उत्पन्न करने की कामना से जब आप वचनोच्चार करते हैं तब आप भी उन शब्दों को सार्थक मानते हैं अथवा परार्थ अनुमान प्रमाण के रूप में उस का अंगीकार करते हैं, फिर बाह्यार्थ में भी यत्किंचित् सम्बन्ध मूलक शब्दगतप्रामाण्य का स्वीकार करने में क्यों झीझक करते हैं ?!
★ तत्त्वव्यवस्था के लिये अनुमानवत् शब्द प्रमाण★ यदि ऐसा कहा जाय कि - अनुमान में भी अव्यभिचार का अवधारण दुष्कर होने से प्रामाण्य स्वीकार्य नहीं है - तो प्रश्न खडा है कि तत्त्वव्यवस्था किस प्रमाण से होगी ? प्रत्यक्ष से नहीं हो सकती क्योंकि वहाँ प्रामाण्यप्रयोजक अर्थाव्यभिचार का सम्भव नहीं है । कदाचित् आप की इच्छानुसार वहाँ अर्थाव्यभिचार मौजूद हो फिर भी प्रत्यक्षादि उस के ग्रहण में सशक्त नहीं होने से प्रत्यक्ष का प्रामाण्य ही जब तक सिद्ध नहीं है, उस से तत्त्वव्यवस्था कैसे होगी ? यदि कहें कि (योगाचारमतानुसार) स्वसंवेदनमात्र से तत्त्वव्यवस्था होगी - तो यह सम्भव नहीं क्योंकि ग्राह्य-ग्राहकाकारशून्य जैसा संवेदन आप को मान्य है वैसा किसी को भी अनुभवोपारूढ नहीं है अत: वह स्वयं ही व्यवस्थित नहीं, तत्त्व की व्यवस्था क्या करेगा ? यदि कहें - ‘भावमात्र प्रतिभासतुल्य
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