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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
२५१ यमो नोपलभ्यते, इन्धनादिसामग्रीतोऽनलप्रादुर्भावदर्शनेऽप्येकदा मण्यादिप्रभवत्वेनापि तस्य समीक्षणात् कथं कार्यहेतावण्यव्यभिचारित्वनिबन्धनं प्रामाण्यं परेणाभ्युपगन्तुं युक्तम् ? तथा, यद्यपि बहुलं वृक्षस्यैव भू(च)तस्योपलम्भस्तथापि क्वचित् कदाचिल्लतात्मतयाऽप्याग्रस्य दर्शनात् शिंशपा वृक्षस्वभावमेव बिभर्तीति कथं प्रेक्षापूर्वकारिणां निःशंकं चेतो भवेत् ? यतो 'लता च स्यात् शिंशपा च' नैवात्र कश्चिद् विरोधः इति 'वृक्षोऽयं शिंशपात्वात्' इति स्वभावहेतोरप्यव्यभिचारनिबन्धनप्रामाण्याभ्युपगमः परस्य विशीर्यंत ।
अथ स्वभावस्य भावाऽभावेऽपि भवतो निःस्वभावताऽपत्तेरव्यभिचारलक्षणं प्रामाण्यम् तादात्म्यात्, कार्यस्यापि कारणाऽभावे भवतः कार्यत्वाभावापत्तेस्तदुत्पत्तिस्वरूपाऽव्यभिचारनिबन्धनं प्रामाण्यं विद्यत इत्यनुमानस्य प्रामाण्यम् । नन्वेवं यादृशं याहग्भूतं स्वसन्ताने विवक्षाज्ञानमुत्पन्नं तादृग्भूतमेव श्रोतृसन्ताने ज्ञानमुत्पादयितुकामो वचनमुच्चारयन् परार्थं वाऽनुमानं तदभ्युपगच्छन् शब्दानां बहिरर्थे सम्बन्धनिमित्तं प्रामाण्यं कथं प्रतिक्षिपेत् ?
अथाऽनुमानस्यापि प्रामाण्यमव्यभिचाराऽप्रतिपत्तितः एव नाभ्युपगम्यते, कुतस्तर्हि तत्त्वव्यवस्था ? न प्रत्यक्षात्, तत्रापि स्वार्थाव्यभिचारित्वस्य प्रामाण्यनिबन्धनस्याऽसम्भवात् भवदभिप्रायेण सम्भवेऽपि प्रत्यक्षादिना प्रतिपत्तुमशक्तेः प्रामाण्याऽसिद्धेः । नापि स्वसंवेदनमात्रात्, तस्यापि ग्राह्य-ग्राहकाकारशून्यस्य का अभिप्राय कुछ होता है और शब्द से कुछ अन्य ही अर्थ का प्रतिपादन हो जाता है ऐसा कई बार देखा गया है, मनुष्यों के अभिप्राय भी तरह तरह के होते हैं - कभी कभी भिन्न भिन्न अभिप्राय रहने पर भी समान शब्दप्रयोग होता है तो कभी कभी समान अभिप्राय रहने पर शब्दप्रयोग भिन्न भिन्न होता है, और ऐसा होने पर सर्वत्र विसंवाद की दहेशत बनी रहती है - इन सभी कारणों से यही निष्कर्ष फलित होता है कि शब्द विवक्षा में भी प्रमाण नहीं है । अत एव उस के समान न्याय से जो आप बाह्यार्थ में शब्द को प्रमाण सिद्ध करना चाहते हैं वह भी नामुमकीन है ।
जैन : यदि ऐसे तर्काभास से आप शब्दप्रामाण्य का सर्वथा तिरस्कार करेंगे तो सर्वदेश-काल में शब्दमूलक जितने भी व्यवहार प्रसिद्ध हैं उन सभी का उच्छेद हो जायेगा । सुनिये, आपने तो पुरुष के अभिप्रायों की विचित्रता दर्शायी, लेकिन पदार्थ तो निरभिप्राय होते हुये भी उन में ऐसा कोई नियम उपलब्ध नहीं होता कि “एक जाति वाले अर्थ से एक बार कभी कहीं जैसे अर्थ का उद्भव देखा गया, सर्वत्र सर्वकाल में उस जातिवाले अर्थ से ही वैसे ही समान अर्थ का उद्भव होता हो ।' उदा० कभी कहीं इन्धनादि सामग्री से अग्नि का उद्भव दिखता है फिर भी दूसरे देश-काल में कभी मणि (= सूर्यकान्त मणि अथवा बिलोरी काच) आदि से भी अग्नि का उद्भव देखने को मिलता है । अब बताइये कि कार्य हेतुक अनुमान में आप कैसे अव्यभिचारमूलक प्रामाण्य स्थापित करेंगे ?
इसी तरह, आम की उपलब्धि हालाँ कि बार बार वृक्षरूप में ही होती है, फिर भी कभी कहीं लतारूप में भी आम्र मिलता है यह जान लेने के बाद, 'सीसम भी वृक्षस्वभाव ही धरता है' ऐसा नि:शंक निश्चय बुद्धिजीवी को कैसे हो सकेगा ? क्योंकि 'लता भी हो और सीसम भी' इस तर्कणा में कोई विरोध तो है नहीं, अत: 'यह वृक्ष है क्योंकि सीसम है' इस स्वभावहेतुक अनुमान में अव्यभिचारमूलक प्रामाण्यअंगीकार आप नहीं कर सकेंगे।
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