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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
धान्यतरसाधनवाक्यस्य पारम्पर्येण स्वलक्षणप्रतिबन्धादितरस्माद् विशेषस्तर्ह्यनिष्टमपि वाच्य-वाचकयोः सम्बन्धान्तरं हेतुफलभावविलक्षणं सामर्थ्यप्राप्तं परेणाभ्युपगतं भवति । न च शब्दस्य क्वचिद् व्यभिचारदर्शनात् सर्वत्राऽनाश्वासादप्रामाण्यकल्पना युक्तिमती, प्रत्यक्षस्यापि तथाभावप्रसक्तेः ।
अपि च अन्यविवक्षायामन्यशब्ददर्शनाद् विवक्षायामपि क्वचिद् व्यभिचारात् सर्वत्रानाश्वासात् कथं विवक्षाविशेषसूचका अपि ते स्युः ? अथ 'सुविवेचितं कार्यं कारणं न व्यभिचरति' [ 1 इतिन्यायाद् विवक्षासूचकत्वं शब्दविशेषाणां न विरुध्यते तर्हि येनैव प्रतिबन्धेन शब्दविशेषो विवक्षाविशेषसूचकस्तत एवार्थविशेषप्रतिपादकोऽसौ किं नाभ्युपगम्यते !!
अथ स्वाभिधित्सितार्थप्रतिपादनशक्तिवैकल्यादन्यथापि प्रायशोऽभिधानवृत्तिदर्शनाद् विचित्राभिसन्धित्वात् पुरुषाणां विसंवादशंकया वक्त्रभिप्रायेऽपि तेषां प्रामाण्यं नाभ्युपगम्यते इति न तन्न्यायेन बाster एषां प्रामाण्यप्रसक्तिः । नन्वेवमप्रामाण्ये सर्वव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिः, तथाहि - यज्जातीयात् क्वचित् कदाचिद् यथाभूतं दृष्टं तादृशादेव सर्वदा सर्वत्र तथाभूतमेव भवतीति निरभप्रायेष्वपि पदार्थेषु नि
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अभिप्रेत अर्थ के सूचक उपरोक्त दोनों साधनवाक्यों का स्वलक्षण अर्थ के साथ कोई भी सम्बन्ध न होने से दोनों अपारमार्थिक अर्थसूचक होने में कोई भेद नहीं रहेगा । फलतः एक को साधन और अन्य को साधनाभास मानना गलत होगा । यदि कहें कि 'दो में से एक साधनवाक्य परम्परया स्वलक्षण अर्थ के साथ सम्बन्ध धारक है, दूसरा साधनवाक्य परम्परया स्वलक्षण के साथ सम्बन्धधारक नहीं है इसलिये उन दोनों में सरलता से भेदज्ञान हो जायेगा ।' तो इच्छा न होते हुये भी आपने वाच्य और वाचक दोनों में कार्य कारणभाव से अतिरिक्त परम्परा सम्बन्ध मान ही लिया जो कि पूर्वोक्त तर्कयुक्ति के बल से सिद्ध होता है । कभी कभी शब्द से गलत अर्थबोध भी हो जाता है इतने मात्र से समस्त शब्दों में अविश्वास कर के उन को अप्रमाण घोषित करना कतई ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा करेंगे तो कभी कभी प्रत्यक्ष से भी गलत अर्थबोध होता है इस लिये समुचे प्रत्यक्ष को भी अप्रमाण घोषित करना पडेगा ।
उपरांत, पहले आपने यह कहा था कि ' शब्द लिंग बन कर वक्ता की विवक्षा का अनुमान कराता है' [१८५-१३] इस के ऊपर भी अब प्रश्न होगा कि विवक्षा कुछ ओर होगी और शब्द कुछ अन्य ही विवक्षा दिखायेगा तो वहाँ भी व्यभिचार प्रगट होने से किसी भी शब्द से सही विवक्षा का पता चलने में विश्वास न रहने से, शब्द को विवक्षा - विशेष का सूचक अनुमापक भी कैसे मान सकेंगे ? यदि कहें कि - 'सुविवेचित कार्य कारणव्यभिचारी नहीं होता' इस न्याय के अनुसार विवक्षासूचन रूप कार्य का जिन शब्दों के साथ जन्य-जनक भाव सुनिरीक्षित है उन शब्दों का विवक्षासूचकत्व से विरोध कभी नहीं होता' - तो शब्दसम्बन्धवादी का यह कहना भी न्यायसंगत ही है कि जिस सम्बन्ध के द्वारा नियत शब्द नियत विवक्षा का सूचक मानना चाहते हो उसी सम्बन्ध के द्वारा नियत अर्थ का ही सूचक मान लेने में क्या हरकत है ?
★ शब्द प्रमाण न मानने पर व्यवहारभंग दोष ★
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बौद्ध : आप विवक्षा में शब्द के प्रामाण्य का आलम्बन ले कर शब्द को बाह्यार्थ में भी प्रमाण सिद्ध करना चाहते हैं यह गलत है । कारण, हम तो विवक्षा यानी वक्ता के अभिप्राय में भी शब्द को प्रमाण नहीं मानते, इस के कारण ये हैं कि शब्द में विवक्षित अर्थ के प्रतिपादन की शक्ति वास्तव में नहीं होती, वक्ता
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