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द्वितीयः खण्डः का० - २
शब्दार्थयोस्तु साक्षात् तदुत्पत्ति- तादात्म्यलक्षणसम्बन्धमन्तरेणाऽपि सम्बन्धः परेणाऽभ्युपगन्तव्यः अन्यथा 'यत् सत् तत् सर्वं क्षणिकम्, अक्षणिके क्रम- यौगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् संश्व शब्द:' इति, 'यत् किंचित् सत् तत् सर्वमक्षणिकम्, क्षणिकेऽर्थक्रियानुपलब्धेः संथ ध्वनिः' इति साधनवाक्ययोः स्वपराभिप्रेतार्थसूचकयोः स्वलक्षणाऽसंस्पर्शित्वेन भेदाभावात् साधन-तदाभासव्यवस्थानुपपत्तिप्रसक्तिः । अमें भी वर्णाकृतिअक्षराकारशून्य आकार का भान नहीं होता किन्तु वहाँ शब्द का अथवा व्यक्ति का ही आकार भासित होता है, "उपरांत इन ज्ञानों में जो भासित होता है वह अर्थक्रियासमर्थ पदार्थ ही भासित होता है जब कि जाति तो दाहपाकादि अर्थक्रिया में समर्थ नहीं है, इस लिये कदाचित् उस का भान अंगीकार करें तो भी वह प्रवृत्तिहेतु नहीं हो सकती, 'लक्षितलक्षणा से उस के द्वारा स्वलक्षण में प्रवृत्ति होने का भी संभव नहीं है क्योंकि जाति का व्यक्ति के साथ कुछ सम्बन्ध भी स्थापित नहीं होता, 'सम्बन्ध के होने पर भी प्रत्यक्षादि से उस का अवगम शक्य नहीं है इस लिये जाति का भान मानने पर भी सम्बन्ध के द्वारा व्यक्ति में प्रवृत् अशक्य है”....इत्यादि सब दोषपरम्परा जैनमत में सर्वथा निरवकाश है क्योंकि जैनमत में व्यक्ति से सर्वथा भिन्न वर्णादिशून्य और व्यक्ति में समवेत प्रकार की जाति का अभ्युपगम ही नहीं है। जैन मत में जाति-व्यक्ति का एकान्तभेद मान्य नहीं है । इसलिये भेद समझ कर जो यह कहा है 'किसी एक के भासित होने पर भी दूसरे का प्रतिभास न होने से उन के सम्बन्ध का अवगम शक्य नहीं, क्योंकि दो में रहने वाले सम्बन्ध का भान किसी एक के भान से नहीं होता'.... इत्यादि कथन को अवकाश ही नहीं है ।
जैनमत का प्रतिपादन ही ऐसा है कि वस्तु सामान्य विशेषोभयात्मक होने का अनुभव सभी को होता है, उस में ज्ञातव्य यह है कि जाति-व्यक्ति में किसी एक का भान जब प्रधानरूप से होता है तब दूसरे का गौणरूप से होता है, इस का मूल है सामग्रीभेद । कभी जाति को प्रधानरूप से चमकानेवाली क्षयोपशमादि सामग्री मौजूद रहती है तब जाति का प्रधान रूप से और व्यक्ति का गौणरूप से भान होता है, इसी तरह उलटा भी समझ लेना । इस प्रकार सामग्रीभेद से ही प्रत्यक्षादि बुद्धि में कभी जाति का विशदरूप से या अविशदरूप से भान होता है । यह भी जो पहले कहा था कि 'व्यक्तिपरम्परा निरवधि अर्थात् अनन्त है, एकसाथ तो किसी को भी सर्वव्यक्ति का भान नहीं होता, क्रमश: भी अनन्तव्यक्ति का भान शक्य नहीं है, इस लिये व्यक्तियों का जाति के साथ सम्बन्ध का उपलम्भ शक्य नहीं है' यह दूषण भी जाति - व्यक्ति का कथंचिद् अभेद कहने वाले के पक्ष में निरवकाश होने से उस का उत्तर देने की आवश्यकता नहीं रहती । अभेद होने से व्यक्ति के साथ गौण - मुख्य किसी एकरूप से जाति का भान सरलता से हो जाता है ।
★ शब्द और अर्थ का सम्बन्ध अवश्य स्वीकार्य ★
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शब्द और अर्थ का तादात्म्य और तदुत्पत्ति सम्बन्ध भले नहीं माने किन्तु किसी न किसी एक सम्बन्ध का स्वीकार बौद्धवादी को करना ही पडेगा । यदि नहीं मानेंगे तो आगे लिखे अनुसार साधन और साधनाभास के भेद की व्यवस्था संगत नहीं कर पायेगें - बौद्ध का यह साधनवाक्य है कि 'जो कुछ सत् है वह सब क्षणिक है, क्योंकि अक्षणिकपक्ष में क्रम से अथवा एकसाथ होनेवाली अर्थक्रिया के साथ विरोध आता है, शब्द भी सत् है ।' इस के सामने अक्षणिकवादी का ऐसा साधनवाक्य है, 'जो कुछ सत् है वह सब अक्षणिक है क्योंकि क्षणिक पक्ष में अर्थक्रिया उपलब्ध नहीं होती, शब्द भी सत् है ।' अपोहवादी के अनुसार, अपने और पराये
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