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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
न व्यक्तौ प्रवृत्तिः ' [ पृ० १३२ - १३८ ] इत्यादि सर्वं प्रतिक्षिप्तम् अनभ्युपगमादेव । न हि जाति-व्यक्त्योरेकान्तभेदोऽभ्युपगम्यते येन प्रत्यक्षे शाब्दे वा जातिव्यक्त्योरन्यतरप्रतिभासेऽप्यपरस्याऽप्रतिभासनान सम्बन्धप्रतिपत्तिः स्यात् - " द्विष्ठसम्बन्धसंवित्तिर्नैकरूपप्रवेदनात् " [ ] इति न्यायात् किन्तु सामान्यविशेषात्मकं वस्तु सर्वस्यां प्रतिपत्तौ प्रतिभाति, केवलं 'प्रधानोपसर्जनभावेन जाति-व्यक्त्योः सामग्रीभेदात् प्रत्यक्षादिबुद्धौ प्रतिभासनाद् वैशद्याऽवैशद्यावभासभेदस्तत्र' इति प्रतिपादितम् । 'क्रमेण योगपद्येन वा आनन्त्याद् व्यक्तीनां प्रत्यक्षेऽप्रतिभासनान तासां जात्यां तेन सम्बन्धवेदनम् ' [१३८१].....इत्यादिकमप्यस्माकमदूषणं यथाप्रदर्शितवस्त्वभ्युपगमवादिनां न प्रतिसमाधानमर्हति ।
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वस्तु का बोध संगत हो सकता है । यह पहले सिद्ध किया हुआ है ।
यदि आप ऐसा दोषापादन करना चाहें कि 'ये स्त्रीत्व, पुंस्त्व और नपुंसकत्व को गोत्व की तरह जातिविशेषरूप मानने पर यह आपत्ति आयेगी कि जाति के लिये भी 'जाति, भाव, सामान्यम्' ऐसे भिन्न भिन्न लिंग के प्रयोग तो सर्वविदित है किन्तु जाति में तो जाति नहीं मानी जाती, तब उस में स्त्रीत्वादि जाति भी नहीं जायेगी, अतः स्त्रीत्वादि जाति के आधार पर स्त्रीलिंग - पुर्लिंग और नपुंसकलिंग की व्यवस्था 'जाति' आदि शब्दों में व्यापक न बनने से न्यूनता होगी' तो यह दोषापादन नैयायिकादि के मत को धूमिल कर सकता है, अनेकधर्मात्मक एक वस्तुवादी जैनों के मत में तो ऐसे दोष को अवकाश ही नहीं है । जैन मत में गोत्वादि सामान्य को 'गो' आदि आश्रय से सर्वथा भिन्न एवं समवाय सम्बन्ध से गो आदि वस्तु के साथ सम्बद्ध होने का नहीं माना गया, अतः 'जाति' आदि शब्दों की प्रवृत्ति स्त्रीत्वादि अपर सामान्य रूप लिंग के अभाव में भी हो सकती है, न हो सके ऐसा नहीं है । इसी तरह संख्या भी हम नैयायिक आदि की तरह स्वतन्त्र नहीं किन्तु सापेक्षभाव रूप मानते हैं इसी लिये एकव्यक्ति रूप पत्नी के लिये 'दारा:' आदि बहुत्व संख्या का निर्देश और अनेक व्यक्ति के समुदाय रूप वन या सेनादि के लिये 'वनम्, सेना' ऐसे एकत्व संख्या का निर्देश करने में कोई विरोध नहीं है । वस्तु स्त्रीत्व - पुंस्त्व आदि तथा अकत्व - बहुत्व आदि अनन्त धर्मों से व्याप्त रहती है अतः विवक्षा के अनुसार कभी किसी एक धर्म की प्रधानता दिखाने के लिये तदनुरूप शब्दप्रयोग के द्वारा विविधरूप से प्रतिपादन करने में कोई विरोध नहीं है ।
★ जैन सम्मत जातिपक्ष में दूषण निरवकाश ★
जैनमत में सामान्य विशेषात्मक वस्तु को ही शाब्दबुद्धि और लिंगजबुद्धि का विषय माना गया है, न केवल व्यक्ति को और न केवल जाति को । प्रज्ञाकरमत के अनुयायीयों ने, [१३२-३८] “जो जिस ज्ञान में भासित होता है वही उस ज्ञान का विषय होता है, शब्द- लिंगजन्य बुद्धि में बाह्यार्थप्रतिभासशून्य सिर्फ अपना (बुद्धि का ) स्वरूप ही भासित होता है इस लिये वही उस का विषय हो सकता है, न कि जाति.." इत्यादि अनुमान प्रयोग दिखा कर, जातिपक्ष में जो दोषपरम्परा का निवेदन किया है कि " जाति निर्विकल्प प्रत्यक्ष में भासित नहीं होती क्योंकि निर्विकल्प में सिर्फ असाधारण स्वरूप का ही अनुभव होता है, सविकल्पप्रत्यक्ष मे भी जाति का अनुभव नहीं होता, क्योंकि उस में भी स्फुट व्यक्तिस्वरूप के व्यवसाय के अलावा वर्णाकृतिअक्षराकारशून्य किसी का भान नहीं होता, जातिवादी तो जाति को वर्णाकृतिअक्षराकारशून्य मानते हैं, 'शब्दलिंगजन्य बुद्धि
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