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द्वितीयः खण्ड:-का०-२ पाधिविशिष्टवस्तुप्रतिभासस्य प्रतिनियतक्षयोपशमविशेषनिमित्तस्य साधितत्वात् । “गोत्वादित् सामान्यविशेषाः स्त्रीत्वादयः, न च सामान्येष्वपराणि सामान्यानि विद्यन्ते, अथ च 'जातिर्भावः सामान्यम्' इति तेष्वपि स्त्री-पुं-नपुंसकलिंगत्रयदर्शनादव्यापिता लक्षणस्य" [१११-५] इत्येष दोषोऽनेकधर्मात्मकैकवस्तुवादिनो न जैनान् प्रत्याश्लिष्यति गोत्वादेरपि भिन्नस्य समवायबलाद् वस्तुनि सम्बद्धस्यानभ्युपगमात् येन तेष्वप्यपरसामान्यभूतलिंगत्रयमन्तरेण जात्यादिशब्दप्रवृत्तिर्न स्यात् । अत एव दारादिष्वर्थेषु बहुत्वसंख्या वन-सेनादिषु चैकत्वसंख्याऽविरुद्धा, यथाविवक्षमनन्तधर्माध्यासिते वस्तुनि कस्यचिद्धर्मस्य केनचिच्छब्देन प्रतिपादनाऽविरोधात् ।
[प्रज्ञाकरमतनिरसनम् ] सामान्यविशेषात्मकवस्तुनः शब्दलिंगविषयत्वे च केवलजातिपक्षे यद् दूषणम् 'यद् यत्र ज्ञाने प्रतिभाति तत् तस्य विषयः'.... [पृ. १३२ पं० ९] इत्यादिप्रयोगरचनापूर्वकं प्रज्ञाकरमतानुसारिणाऽभिहितम् - 'यथा न प्रतिभाति निर्विकल्प-सविकल्पाध्यक्षशब्दलिंगप्रभवज्ञानेषु क्वचिदपि विज्ञाने स्वरूपेण वर्णाकृत्यक्षराकारशून्या दाह-पाकाद्यर्थक्रियासमर्था जातिः, प्रतिभासमानाऽप्यनर्थक्रियाकारित्वेन न प्रवृत्तिहेतुः लक्षितलक्षणयापि जाति-व्यक्त्योः सम्बन्धाभावात्, भावेऽपि तस्य प्रत्यक्षादिना प्रतिपत्तुमशक्तेः तथाविध विकल्पाश्रित ही मानना होगा, वास्तविक नहीं' - ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि पिता उपकारक होता है, पुत्र उपकार्य होते हैं इस लिये उन में पूर्वापरभाव होने पर भी वे दोनों समानकाल अवस्थित होने में कोई विरोध नहीं है, इसी तरह विशेषण-विशेष्य भी समान कालीन हो सकते हैं अत: विशेषण-विशेष्य भाव का व्यवहार वास्तविक मानने में कोई बाध नहीं है । ऐसा नहीं कह सकते कि - 'उपकार्यक्षण में उपकारक का नाश हो जाने से विशेषण-विशेष्यभाव नहीं हो सकेगा' - क्योंकि एकान्त अनित्यवाद का पहले निषेध हो चुका है और आगे भी होने वाला है । फलत: उपकार्यक्षण में उपकारक की सत्ता सिद्ध होने पर विशेषण-विशेष्यभाव भी सिद्ध होने में कोई अडचन नहीं है ।
★ अनन्तधर्मात्मकवस्तु-पक्ष में लिङ्ग-संख्यादि का योग★ सामान्य, सामानाधिकरण्य और विशेषण-विशेष्यभाव के व्यवहार जैसे वास्तविक बाह्य वस्तु पर निर्भर है वैसे ही लिंग-संख्यादि का योग (= व्यवहार) भी अनन्तधर्मात्मक बाह्यवस्तु पर ही निर्भर है । एक ही नदीतटादि वस्तु के लिये पुर्लिंग में तट, स्त्रीलिंग में तटी और नपुंसकलिंग में तटम् ऐसे विभिन्न प्रयोग हो सकते हैं क्योंकि अनेकान्तवाद के अनुसार एक वस्तु में विभिन्न अपेक्षा के जरिये भिन्न भिन्न नर-नारी-नान्यतर ऐसे तीन स्वभाव मानने में कोई विरोध नहीं है । यहाँ विरुद्धधर्माध्यास को लेकर भेद का आपादन शक्य नहीं हैं क्योंकि हम पहले यह कह चुके हैं कि विरुद्धधर्माध्यास भेदापादक नहीं है, चूंकि वस्तु अनन्तधर्मों से आश्लिष्ट होती है यह भी पहले बार बार कहा है [ ] । यदि कहें कि - 'बहुरंगी रत्न का अवभास जैसे वैविध्यपूर्ण होता है वैसे ही अनन्तधर्मात्मकवस्तुवादी के मत में 'घट' आदि एक पद से भी वैविध्यपूर्ण ही अवभास होने की आपत्ति होगी, किसी भी वस्तु का नियत एकविध अवभास संगत नहीं हो सकेगा ।' - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रतिनियत धर्म पुरस्कारेण विशिष्ट वस्तु का भान होने के लिये तत्तत् धर्म बोधजनक प्रतिनियत कर्म का क्षयोपशम निमित्त कारण होता है, अत: एकविध धर्मबोधजनक कर्मक्षयोपशम के रहने पर एकविधधर्ममुखेन
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