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________________ २४६ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् अथ सविकल्पप्रत्यक्षवादिनां स्यादयं दोषः उपाधिविशिष्टस्योपाधिमतो निश्चयादुपाधि-तद्वतोश्च परस्परसव्यपेक्षत्वात् । निर्विकल्पप्रत्यक्षवादिनां तु सर्वोपाधिनिरपेक्षनिरंशस्वलक्षणसामर्थ्यभाविना तद्रूपमेवानुकुर्वता निर्वकल्पकाध्यक्षेणान्यनिरपेक्षस्वलक्षणग्रहणाभ्युपगमानायं दोषः । असदेतत्, सकलोपाधिशून्यस्वलक्षणग्राहिणो निर्विकल्पकस्याभावप्रतिपादनात् पुनरपि प्रतिपादयिष्यमाणत्वाच्च । तदेवं भिन्ननिमित्तयोरेकविषयत्वाऽविरोधात् कथं न बहिरर्थे सामानाधिकरण्यव्यवहारः ? विशेषण-विशेष्यभावोऽपि बाह्यवस्तुसमाश्रित एव । न च विशेषण-विशेष्ययोरुपकार्योपकारकभूतत्वेनाऽसमानकालयोस्तथाभूतविकल्पाश्रय एवायं व्यवहार इति वक्तव्यम् , उपकार्योपकारकयोः पितापुत्रयोरिव समानकालत्वाऽविरोधात्, एकान्तानित्यपक्षस्य च निषिद्धत्वात् निषेत्स्यमानत्वाच्च । लिंग-संख्यादियोगोऽप्यनन्तधर्मात्मकबाह्यवस्त्वाश्रित एव । न चैकस्य 'तटस्तटी तटम्' इति स्त्रीपुं-नपुंसकाख्यं स्वभावत्रयं विरुद्धम् विरुद्धधर्माध्यासस्य भेदप्रतिपादकत्वेन निषिद्धत्वात् अनन्तधर्माध्यासितस्य वस्तुनः प्रतिपादितत्वात् । न चैकस्मादेव शब्दादेर्मेचकादिरत्नवच्छबलाभासताप्रसंगः, प्रतिनियतोनिरपेक्ष हो जाय या कारणबुद्धि कार्यबुद्धिनिरपेक्ष मान ली जाय तो उसी प्रकार रस और रूप में परस्पर वैशिष्टय होने पर भी समानकालीन रूपादि का बोध नहीं हो सकेगा । सच बात तो यह है कि - उपकारक दृष्टिगोचर न होने पर तद्विशिष्टरूप में उपकार्य का बोध शक्य नहीं है और उपकार्य दृष्टिगोचर न होने पर उपकारक का तद्विशिष्टरूप से बोध शक्य नहीं है - ऐसा आपादन तो सम्बन्धाभाववादी पक्ष में भी अनिवार्य रूप से समान * सकलोपाधिशून्य स्वलक्षणग्राही निर्विकल्पक असिद्ध है ★ यदि कहें कि - 'यह तो सविकल्पवादी के पक्ष में दोष है । क्योंकि सविकल्पनिश्चय उपाधिविशिष्ट उपाधिमान् को ग्रहण करने के लिये उद्यत होता है, किन्तु उपाधिमान् और उपाधि ये दोनों परस्पर सापेक्ष होते हैं. इसलिये, उन के निश्चय में अन्योन्याश्रय दोष लब्धावसर है । जो निर्विकल्पप्रत्यक्षवादी हैं उन के मत में तो स्वलक्षण को सर्वोपाधिनिरपेक्ष एवं निरंश माना गया है, उसी के सामर्थ्य से उस के स्वरूप अनुरूप ही निर्विकल्प प्रत्यक्ष का उदय होता है, जो अन्यनिरपेक्ष स्वलक्षण को ग्रहण करता है । यहाँ कोई दोष नहीं है' - यह भी गलत बात है, हमने पहले दिखाया है कि सकलोपाधिशून्य स्वलक्षण को ग्रहण करने वाला कोई निर्विकल्प जैसा ज्ञान वास्तविक होता ही नहीं है । इस बात का आगे भी समर्थन किया जाने वाला है। ___ सारांश, नील और उत्पल के विकल्पों का निमित्त भिन्न होने पर भी उन में एकविषयता होने में कोई विरोध नहीं है तब बाह्यार्थ में नील-उत्पलादि शब्दों के सामानाधिकरण्य का व्यवहार क्यों नहीं हो सकता ? ★ उपकारक-उपकार्य में विशेषण-विशेष्यभाव* विशेषण-विशेष्यभाव भी बाह्यवस्तुनिष्ठ होने में कोई विरोध नहीं है । ऐसा मत कहना कि - "विशेषण उपकारक है और विशेष्य उपकार्य है, उपकारक पहले रहेगा तभी दूसरे पर उपकार कर के उस को उपकृत (उपकार्य) करेगा, अत: उपकारक होगा पूर्वकालीन और उपकार्य होगा उत्तरकालीन, दोनों समानकालीन नहीं हो सकते इसलिये उन में विशेषण-विशेष्य भाव भी नहीं घट सकता । फलत: विशेषण-विशेष्य व्यवहार तो सिर्फ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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