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द्वितीयः खण्डः - का०-२
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तयोः प्रतिभासनात् । क्रमप्रतिभासेऽपि न तत्प्रतिपत्त्योरितरेतराश्रयत्वम्, वृक्षत्वविशिष्टस्य दूरादध्यक्षेण प्रतीतस्य प्रत्यासन्नादाम्रादिविशेषणविशिष्टस्य तस्यैवावसायात् । शाब्दप्रतिभासेऽपि गोशब्दाद् गोत्वमात्रो - पारवभास (त) स्य शुक्लशब्दात् तदुपाधिविशिष्टस्य तस्यैवावभासनात्र तत्प्रतीत्योरितरेतराश्रयत्वम् । न च गुणग्रहणमन्तरेण गुणिनो गवादेरग्रहः तदग्रहे च गुणाऽग्रह इति चोयावकाशः, गोशब्दाद् विशेषण - विशेष्ययोर्युगपदेव प्रतिपत्तेः । परस्यापि च समानोऽयं दोषः परस्परविशिष्टशेषकार्योपकारकप्रत्यययोरन्योन्यापेक्षत्वात् । अनपेक्षत्वे न रसादेरेककालस्य रूपादेरनुमानं स्यात् । अथोपकारकादिप्रतिपत्तेरेवेतरज्ञानाविनाभावित्वान्नात्र दोषद्वयसवः । नन्वेवं परस्परविशिष्टत्वाऽविशेषेऽपि यदि कार्यबुद्धिः कारणबुद्धयनपेक्षा कारणबुद्धिरपीतरबुद्ध्यनपेक्षेति न रूपादेः समानकालस्यावगतिः स्यात् । अपि चोपकारकस्याSEष्टौ नोपकार्यस्येतरविशिष्टतया दृष्टिः तददृष्टौ चोपकारकस्येतरविशिष्टत्वेनादृष्टिरिति परस्यापीदं चोद्यं समानम् ।
के रूप में धर्म का बोध आवश्यक है, इस प्रकार अन्योन्याश्रय होने से उपाधि - उपधेय के रूप में प्रतीति का उद्भव शक्य नहीं है, फलतः उपाधि-उपाधिमद् भाव भी सिद्ध न होने से उस का अभाव फलित होगा ।' तो यह कथन अयुक्त हैं क्योंकि ( जैसे हेतु - साध्य के सहभावी प्रत्यक्ष में दोनों के हेतु हेतुमद्भाव की प्रतीति एक साथ होती है वैसे ही) उपाधि-उपधेय का जब एक साथ प्रत्यक्ष होता है तब उन में उपाधि - उपधेय भाव भी प्रतीत हो जाते है । कदाचित् धर्म और धर्मी का क्रमशः बोध होता हो तब भी उन की प्रतीतियों में अन्योन्याश्रय सम्भव नहीं है कयोंकि दूर से जब पहले वृक्षत्व सामान्यतः वृक्षस्वरूप धर्मी का अध्यक्ष होता है और तुरंत उस के पास चले जाते हैं तब आम्रादिविशेषण सहित उसी वृक्षस्वरूप उपधेय का बोध होता है यह सर्वजनानुभवसिद्ध है ।
सिर्फ प्रत्यक्ष में ही नहीं शाब्दबोध में भी वैसा हो सकता है, पहले 'गौ' शब्द से गोत्वसामान्यतः 'गौ' रूप धर्मी का बोध होता है उस के बाद तुरंत 'शुक्ल' शब्द सुनाई देने पर सांनिध्य की महिमा से शुक्लत्वविशेषणविशिष्ट उसी गौ का भान होता है इस लिये शब्द प्रतीतियों में भी अन्योन्याश्रय दोष नहीं है । यदि कहें कि 'गुण के ग्रहण के विना गुणी गौ आदि का ग्रहण शक्य नहीं और गुणी का ग्रहण न होने पर गुण का ग्रहण भी अशक्य है, इस लिये पहले स्वतन्त्र रूप से गौ या शुक्ल का ग्रहण ही नहीं हो सकेगा ' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'गौ' शब्द से रूपविशेष शुक्लादि का बोध न होने पर भी सामान्यतः रूप विशेषण और रूपवान गौ का बोध तो एक साथ हो सकता है । इस प्रकार हमारा ( सम्बन्धवादी का) पक्ष निर्दोष होने पर भी प्रतिवादी को अन्योन्याश्रयदोषापादन में अभिनिवेश है तो उस को पहले यह ध्यान देना चाहिये कि अन्योन्य विशिष्ट ऊपकारक- उपकार्य की प्रतीतियों में अन्योन्य सापेक्षता रहने पर उस के मत में भी वह दोष अनिवार्य होगा । यदि वह उपकारक उपकार्य की प्रतीतियों में सापेक्षता मानने से इनकार करेगा तो रसादि हेतु से समानकालीन रूपादि का अनुमान उस के मत में संगत न होगा ।
यदि कहें कि उपकारक आदि की प्रतिपत्ति ही उपकार्यादि के ज्ञान के विना नहीं होती, उपकार्यप्रत उपकारक के बिना भी हो सकती है अतः रसादि और रूपादि उपकार्य- उपकारक नहीं हैं इस लिये हमारे पक्ष में उस के अनुमान का उच्छेद अथवा उपकारक- उपकार्य प्रतीतियों में अन्योन्याश्रय दोष को अवकाश नहीं है । तो यहाँ यह विचार करना होगा कि यदि इस प्रकार परस्पर वैशिष्ट्य के समान होने पर भी कार्यबुद्धि कारणबुद्धि
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