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________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् ग्रहणप्रसक्तिः, सम्बन्धिग्रहणमन्तरेण सम्बन्धप्रतिपत्तेरभावात् अंगुलीद्वयप्रतिपत्तौ तत्संयोगप्रतिपत्तिवत् । सम्बन्धिष्वेकसम्बन्धानभ्युपगमवादिनामस्माकं नायं दोषः, नहि प्राग्भावोत्तरभावावन्तरेणापरः कार्य-कारणभावादिरेकः सम्बन्धोऽस्माभिरभ्युपगम्यते येन समस्तावगमात् सर्वः सर्वदर्शी स्यात् । असदेतत् यतो न सम्बन्धवादिनः समस्तोपाधिसम्बन्धानामुपाधिमतोऽव्यतिरेकेऽपि तदेकोपाधिसम्बन्धात्मकस्यैव तस्य ज्ञानात् सम्बन्धिनोऽशेषस्योपाधेरपि ग्रहणम् । सम्बन्धाभाववादिनोऽपि यद्युपकारकप्रतिपत्तावपि नोपकार्यस्यावगतिरेकसम्बन्धाभावात् तदा कथं हेतुधर्मानुभावेन रूपादे रसतो गतिः उपकार्यविशिष्टस्योपकारकस्याऽप्रतिपत्तेः ? प्रतिपत्तौ कथं न भवन्मतेन सर्वः सर्वविद् भवेत् ? न चोपाधि- तद्वत्प्रतीत्योरितरेतराश्रयत्वात् तत्प्रतीत्यभावादुपाधितद्वद्भावाभावः, युगपद् अध्यक्षे फलतः सम्बन्ध को सम्बन्धी से अव्यतिरिक्त ही मानना होगा । इस स्थिति में एक उपाधि के द्वारा अन्य समस्त उपाधिसम्बन्ध से अव्यतिरिक्त ही उपाधिमत् का ग्रहण शक्य होगा, फलतः एक सम्बन्धी के ग्रहण से समस्त धर्मों के ग्रहण की आपत्ति विना आमन्त्रण आयेगी । यह भी इस लिये कि धर्मी जैसे सम्बन्धी है वैसे उन के धर्म भी सम्बन्धी है और सम्बन्धीयों के ग्रहण के विना सम्बन्धग्रहण शक्य नहीं होता । उदा० जब दो अंगुलियों का सम्बन्धी रूप में ग्रहण होता है तब उन दोनों के संयोगसम्बन्ध का ग्रहण होता है । हम तो सम्बन्धियों के मध्य किसी एक सम्बन्ध का स्वीकार नहीं करते हैं इस लिये ऐसा दोष निरवकाश है । हमारे मत में जो कारण कार्य भाव आदि रूप सम्बन्ध कहा जाता है, वह भी पूर्वकालीन एवं उत्तरकालीन दो पदार्थ ही हैं, उन से अतिरिक्त उन दोनों के मध्य किसी एक नये सम्बन्ध का स्वीकार हम नहीं करते हैं। इस लिये एक सम्बन्ध के ग्रहण के लिये समस्त सम्बन्धीयों के ग्रहण की आवश्यकता न होने से सर्वदर्शिता की आपत्ति को भी अवकाश नहीं है । २४४ ★ सम्बन्धाभावपक्ष में दोषसद्भाव - उत्तरपक्ष ★ सम्बन्धवाद के विरुद्ध बौद्धों का यह कथन गलत है । कारण, सम्बन्धवादी के मत में समस्त उपाधियों का सम्बन्ध यद्यपि उपाधिमत् (= उपधेय) से अव्यतिरिक्त ही होता है, फिर भी किसी एक ज्ञान में किसी एक उपाधि के सम्बन्ध के संबन्धीरूप में ही उपधेय का ज्ञान होता है, समस्त उपाधियों के सम्बन्धीरूप में उस वक्त उपधेय का ज्ञान नहीं होता अतः अपरसम्बन्धीरूप में समस्त उपाधियों का ज्ञान होने की आपत्ति निरवकाश है, एवं सर्वदर्शिता की आपत्ति भी दूरापास्त है । सम्बन्धाभाववादी यदि ऐसा कहता है कि उपकारक का बोध होने पर भी उपकार्य के साथ एक सम्बन्ध के न होने से समस्त उपकार्य (उपाधि) के बोध की आपत्ति नहीं होती - यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि हेतुभूत धर्म से जो अनुमान होता है वहाँ रस के ज्ञान से रूप का बोध कैसे हो सकेगा जब कि रसवान् आत्मक उपकारक के बोध में उपकार्य रूप से विशिष्ट उपकारक बोध तो आप सम्बन्धाभावपक्ष में मानते नहीं है । यदि उपकार्य विशिष्ट उपकारक का बोध मानेंगे तो आप के मत में भी समस्त उपकार्य से विशिष्ट उपकारक के बोध के आपादन से सब ज्ञाता सर्वज्ञ बन जाने की आपत्ति क्यों नहीं होगी ? यदि ऐसा कहें कि ' उपाधि और उपधेय की प्रतीतियों में उपाधि के रूप में धर्म का बोध होने के लिये उपधेय के रूप में धर्मी का बोध अपेक्षित है और उपधेय के रूप में धर्मी का बोध करने के लिये उपाधि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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