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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ २४३ भेदपक्षेऽप्येकार्थवृत्तिस्तयोर्घटत एव, तद्द्वारेण शब्द-विकल्पयोरेकस्मिन् धर्मिणि वृत्तेः सामानाधिकरण्यादिव्यवहारसिद्धिः । न चोपाधि-तद्वतोरुपकार्योपकारकभावात् सर्वात्मनैकोपाधिद्वारेणाप्युपाधिमतः प्रतिपत्तेः शब्दादेरेकफलत्वम्, उपकार्योपकारकप्रतीत्योरन्योन्याविनाभावित्वाभावात् तद्भावे वा कथंचित् सर्वस्यापि परस्परमुपकार्योपकारकभावाद् एकपदार्थप्रतिपत्तौ तदाधारादिभावेनोपकारकभूतस्य भूतलादेस्तत्कायभूतसन्तानान्तरवर्तिज्ञानस्य वा ग्रहणम्, ततोऽपि तदुपकारिणोः तस्मादप्यपरस्य तदुपकारिण इति पारम्पर्येण सकलपदार्थाक्षेपात् सर्वः सर्वदर्शी स्यात् ।। अथ सम्बन्धवादिनः स्यादयं दोषः - तस्य सम्बन्धिभ्यः सम्बन्धस्य व्यतिरेकेऽनवस्थाप्रसंगः इत्येकोपाधिद्वारेणाप्युपाधिमतः समस्तोपाधिसम्बन्धात्मकस्यैवावगमात् सम्बन्धिनो धर्मकलापस्याऽशेषस्यापि और उत्पल स्वरूप उपाधिमत् ये दो अभिन्न होने पर भी किसी एक नीलादिपद से सर्वात्मना उत्पलादि भान शक्य न होने से भिन्न भिन्न अंश बोधकत्वरूप भिन्न भिन्न फल के प्रतिपादन में कोई विरोध नहीं है। एवं अभेद होने के कारण एकार्थवृत्तित्व की भी उपपत्ति सरलता से हो जायेगी। * भेदपक्ष में भी एकार्थवृत्तित्व की उपपत्ति ★ धर्म-धर्मी के अभेदपक्ष में जैसे बताया कि शब्द - विकल्प एकार्थवृत्ति हो सकते हैं, भेद पक्ष में भी वे एकार्थ वृत्ति हो सकते हैं । उपाधि के द्वारा दो शब्द एवं दो विकल्प एक धर्मि में वृत्ति होने से सामानाधिकरण्य आदि का व्यवहार भी निर्बाध सिद्ध होगा । पहले जो कहा था कि - ‘उपाधि-उपाधिमत् में उपकारकभाव मानेंगे तो, (उपाधि पर उपकार करने वाली उपाधिमत् में रही हुई शक्ति उपाधिमत् से अभिन्न होने के पक्ष में,) एक ही नीलादि पद से उपाधि के द्वारा उपाधिमत् का सर्वात्मना बोध हो जाने पर नील और उत्पल पद में भिन्न भिन्न अंश बोधकत्व रूप फलवैविध्य न रहेगा किन्तु वे दोनों समानार्थक हो जायेगें' - यह ठीक नहीं है क्योंकि उपकार्य-उपकारभाव परस्पर सापेक्ष होने पर भी उन की प्रतीति एक दूसरे के विना न हो सके ऐसा नहीं है, अत: एक उपाधि के द्वारा सर्वात्मना उपाधिमत् की प्रतीति प्रसक्त होने की सम्भावना ही नहीं रहती । यदि ऐसा भी मान ले कि - 'उन की प्रतीतियों में भी अन्योन्य सापेक्षता होती है' - तब तो समस्त जनसमुदाय में भी सर्वदर्शी हो जाने की आपत्ति प्रसक्त होगी - देखिये, किसी न किसी रीति से हर कोई वस्तु अन्य समस्त वस्तुओं की उपकारक या उपकार्य होती है चाहे साक्षात् या परम्परा से, इस स्थिति में किसी एक घट आदि वस्तु की प्रतीति होने पर आश्रय के रूप में उस के उपकारी भूतल आदि की, अथवा तो स्वजन्यत्व के नाते अपने उपकार्यभत सन्तानान्तरवर्ती स्वविषयक ज्ञान की प्रतीति हो जायेगी; इतना ही नहीं उस भूतलादि के उपकारक की और उस के भी उपकारक की - ऐसे परम्परा से सकल पदार्थों की प्रतीति एक ही घट पदार्थ की प्रतीति के साथ प्रसक्त होगी क्योंकि वे सकल पदार्थ घट के साथ साक्षात् या परम्परा से उपकार्य - उपकारकभावात्मक सम्बन्ध से जुड़े हुए हैं । ★सम्बन्ध परित्यागमत में दोषाभाव - पूर्वपक्ष★ ____ यहाँ सम्बन्धवादी के दोष देखने वाले कहते हैं कि यह सर्वदर्शिता की आपत्ति का मूल सम्बन्धस्वीकार है । सम्बन्ध को यदि सम्बन्ध से पृथक् माना जायेगा, तो उस सम्बन्ध और सम्बन्धी के मध्य भी नये सम्बन्धी की खोज करना होगा, उस नये सम्बन्ध का भी पुन: नया नया सम्बन्ध खोजते खोजते अन्त नहीं आयेगा, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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