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________________ २४२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् 'अनुभवानन्तरभावी विकल्पोऽभ्यासः' इति चेत् ? ननु 'तदभावाद् विकल्पोत्पत्त्यभावे यथानुभवं कस्मानिश्चयानुत्पत्तिः इति प्रश्ने 'निश्चयाभावानिश्चयानुत्पत्तिः' इत्युत्तरं कथं संगतं स्यात् ? अन्त्यक्षणदशिनां चानित्यविकल्पोत्पत्तेस्तदभावोऽसिद्धश्च । न च क्षणिकत्वप्रतिपादकागमाऽऽहितसंस्कारस्यानित्यविकल्पावृत्तिरभ्यासः, तदागमानुसारिणां तदुत्पत्तावपि यथानुभवं विकल्पाभावात् । दर्शनपाटवमपि सत्त्वादिविकल्पोत्पत्तेरेवावसीयते पाटवाऽपाटवलक्षणविरुद्धधर्मद्वयस्यैकत्राऽयोगात्, शब्दाऽनित्यत्वजिज्ञासायां प्रकरणादीनामपि भावात् । सर्वात्मना चेत् स्वलक्षणस्यानुभवस्तथैव निश्चयोत्पत्तिः स्यात् । तदनुत्पत्तेर्न सर्वात्मनाऽनुभवो भावस्येत्यवसीयते । अतो नानाफलत्वमभेदेऽप्युपाधि-तद्वतोः शब्दविकल्पयोरविरुद्धम् । हैं तो सत्त्व और क्षणिकत्व एक स्वरूप होने से जितनी बार सत्त्व के दर्शन की उत्पत्ति होती है उतनी बार क्षणिकत्वानुभव की भी उत्पत्ति होती ही है, अत: क्षणिकत्व के दर्शन की आवृत्ति भी सत्त्वदर्शनावृत्ति की तरह सिद्ध होती है, फिर कैसे कहते हो कि यहाँ दर्शनावृत्तिस्वरूप अभ्यासरूप सहकारी नहीं है ? यदि बौद्धवादी कहें कि - अनुभव के बाद विकल्प का उद्भव होना यही अभ्यास है - तो जो प्रश्न है वही आपने उत्तर बना डाला, आपने कहा कि अभ्यास के न होने से विकल्प का उद्भव नहीं होता, तब हमने प्रश्न किया - जिस के अभाव में अनुभव के अनुरूप विकल्प उत्पन्न नहीं होता वह अभ्यास क्या है, तब आपने यही बताया कि अनुभव के बाद विकल्प की उत्पत्ति यही अभ्यास है, उस के न होने से अनुरूप विकल्प उत्पन्न नहीं होता - इस का फलितार्थ यही हुआ कि विकल्प की उत्पत्ति न होने से ही विकल्प की उत्पत्ति नहीं होती - यह क्या उचित जवाब है ? उपरांत आप जो कहते हैं कि 'अनित्यत्व का विकल्प उत्पन्न नहीं होता' यह भी ठीक नहीं है क्योंकि अन्त्यक्षण में पदार्थदृष्टा को दर्शन के बाद अनित्यत्व का विकल्प उत्पन्न होता है इस लिये उस का अभाव असिद्ध है। यदि कहें कि - वस्तुमात्र के क्षणिकत्व के प्रतिपादक बौद्ध आगम से जिस को क्षणिकत्व के दृढ संस्कार हो गये हो उस को बार बार अनित्यत्व के विकल्प का उद्भव होना - इसी को अभ्यास कहते हैं - तो यह भी उचित नहीं है, क्योंकि बौद्ध आगम के अनुशीलन से जिस के क्षणिकत्व के संस्कार दृढ हए हैं वैसे पुरुष को अभ्यास के होने पर भी अनुभव के अनुरूप विकल्प का उद्भव नहीं होता । यदि कहें कि - क्षणिकत्व का दर्शन इतना पटु (तीव्र) नहीं होने से उस के अनुरूप विकल्प का उद्भव नहीं होता - तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि सत्त्व के विकल्प का उद्भव होता है इसी से यह फलित होता है कि सत्त्वाभिन्न क्षणिकत्व का दर्शन पटु ही होता है । “सत्त्व के अंश में पटु होने पर भी क्षणिकत्व के अंश में वह अपटु होता है' ऐसा भी नहीं कह सकते, क्योंकि एक ही दर्शन में पटुता एवं अपटुता दो विरुद्ध धर्मों का समावेश शक्य नहीं है । यदि कहें कि - 'अनित्यत्व का प्रकरण प्रवहमान न होने से उस का विकल्प नहीं होता' - तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि जब शब्द की चर्चा में 'उस का अनित्यत्व कैसे' यह जिज्ञासा रहती है तब अनित्यत्व प्रकरण के होते हुये भी अनुभव विकल्प की उत्पत्ति नहीं होती । इस का सार यही निकलता है कि स्वलक्षण का यदि समस्तरूप से अनुभव होता हो तो समस्त रूप से उस का विकल्प उद्भव होना चाहिये किन्तु वह नहीं होता, इस से सिद्ध होता है कि पदार्थ का समस्तरूप से (यानी क्षणिकत्वरूप से भी) अनुभव नहीं होता । तात्पर्य, नील आदि उपाधिपद और उत्पलादि उपाधिमत्पद एवं उन दोनों के विकल्पों में नील स्वरूप उपाधि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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