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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ २४१ तेषामतद्विषयत्वाद्' इति चेत् ! ननु तदेव तदविषयत्वं कुतस्तेषाम् ? न 'सारूप्याद्' इति वक्तव्यम् चक्रकप्रसक्तेः । अथ सत्यपि सारूप्ये रूपादीनां सत्त्वो(?हो)पलम्भाभावान भ्रान्तिः । ननु सत्त्वो(? हो)पलम्भः किं देशनैरन्तर्यमभिधीयते, आहोस्वित् कालनैरन्तर्यम् यद्वा उभयनैरन्तर्यमिति विकल्पाः । तत्र न तावद् देशनैरन्तयं यथोक्तभ्रान्तिनिमित्तम्, संयुक्ताङ्गुल्योस्तद्भावेऽपि भ्रान्तेरभावात् । कालनैरन्तर्य च लघुवृत्तिरेव, न चासौ भ्रान्तिनिमित्तं ह्रस्ववर्णद्वयोच्चारणे तद्भावेऽप्यभावात् । नाप्युभयं तन्निमित्तम् संयुक्ताङ्गुल्योः पूर्वापरक्षणयोरपि सद्भावेनोभयसद्भावेऽपि अभावादित्यान्तरेतरभ्रान्तिकारणाभावात् किं न यथानुभवं विकल्पोत्पत्ति': ? 'सहकारिणोऽभ्यासादेरभावानोत्पत्तिः' इति चेत् ? ननु कोयमभ्यासः यदभावाद् यथानुभवं निश्चयानुत्पत्तिः ? 'दर्शनस्य पुनः पुनरुत्पत्तिः' इति चेत् ? ननु सत्त्वादेः क्षणिकत्वादेरभेदे तदनुभवस्य पुनः पुनरनु(?रु)त्पत्तिरेव क्षणिकत्वदर्शनावृत्तिरिति कथं न दर्शनावृत्तिलक्षणोऽभ्यासः ? बौद्ध : गोत्वरूप से शबलेयादि एकपरामर्शहेतु होने पर भी वह रूप उस का विषय नहीं है इस लिये उस रूप से उन में सारूप्य मान्य नहीं हो सकता । जैन : अरे ! यहाँ भी वही प्रश्न है कि वह क्यों उस का विषय नहीं है ? 'सारूप्य नहीं होने से' ऐसा कहेंगे तो वही चक्कर घुमता रहेगा, प्रतिभास क्यों नहीं है - सारूप्य न होने से, सारूप्य क्यों नहीं है - तद्विषयत्व न होने से, तद्विषयत्व क्यों नहीं है - सारूप्य न होने से..इस चक्रभ्रमण से कुछ फायदा नहीं बौद्ध : रूपादि में सारूप्य होने पर भी रूप-आलोक आदि को सहोपलम्भ नहीं होता इस लिये वहाँ एकत्व की भ्रान्ति नहीं होती । जैन : 'सहोपलम्भ नहीं होता' इस का क्या मतलब ? देशनैरन्तर्य, कालनैरन्तर्य या उभयनैरन्तर्य ? *देशादिनैरन्तर्य भ्रान्ति का मूल नहीं ★ यदि पहले विकल्प के अनुसार देशनैरन्तर्य को भ्रान्ति का निमित्त कहा जाय तो यह उचित नहीं है क्योंकि संयुक्त दो अंगुली में दैशिक अन्तर नहीं होता फिर भी वहाँ एकत्व का विभ्रम नहीं होता । दूसरे विकल्प में, कालनैरन्तर्य का मतलब यह होता है - कालिक व्यवधान न होना, यानी शीघ्र उत्पत्ति होना; यह भी भ्रान्ति का निमित्त नहीं होता क्योंकि एक ह्रस्व वर्ण के उच्चारण के बाद तुरन्त ही व्यवधान के विना शीघ्र दूसरे ह्रस्व वर्ण का उच्चार होता है वहाँ एकत्व का विभ्रम नहीं होता । उभय यानी दैशिक-कालिक दोनों के नैरन्तर्य को भी भ्रान्ति का निमित्त नहीं कह सकते क्योंकि पूर्वक्षण और उत्तरक्षण दोनों क्षण में जब संयुक्त दो अंगुली को देखते हैं तब उभयनैरन्तर्य रहने पर भी एकत्व का विभ्रम नहीं होता । इस प्रकार जब एकत्व के विभ्रम को कोई बाह्य-आन्तर निमित्त है नहीं, तब तो सत्त्व के साथ यदि क्षणिकत्व का अनुभव हुआ हो तो क्यों विकल्प में भी अनुभव की तरह क्षणिकत्व का भान नहीं होता ? यदि कहें कि - (बार बार क्षणिकत्व के अनुभव स्वरूप) अभ्यास आदि सहकारी के न होने से क्षणिकत्व के विकल्प का उद्भव नहीं होता' - तो यहाँ प्रश्न है कि जिस के न होने से अनुभव के अनुरूप विकल्प का उद्भव नहीं होता है वह अभ्यास क्या चीज है ? 'बार बार दर्शन की उत्पत्ति' को यदि अभ्यासरूप कहते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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