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________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् २४० इति चेत् ? न, मनस्कारस्य सारूप्यात्, तत्र प्रतिभासप्रसक्तेः । विलक्षणानां च कथं सारूप्यम् ? नैकविज्ञानजनकत्वाद्, रूपादावपि तत्प्रसंगात् । अथेष्यते एव तत् तेषाम् । न, रूपविज्ञानजनकत्वेन यत् तेषां सारूप्यम् तदस्तु तस्याऽस्माभिरपि सदादिप्रत्ययहेतुत्वेन सदादित्वस्येवेष्टत्वात् । किं तर्हि ? रूपात्मना रूपादीनां रूपप्रत्ययहेतुत्वात् शाबलेयादीनामिव गोत्वात्मना सारूप्यं गोप्रत्ययहेतुनां किं न स्याद् इति प्रेर्यते पारम्पर्येणैकपरामर्शप्रत्ययहेतुत्वस्यापि तेषु भावात् । ' तद्धेतुत्वेऽपि न तेनात्मना सारूप्यं का सादृश्य तो उन दोनों में सदा रहने वाला है । ★ बौद्धमत में सादृश्य की अनुपपत्ति ★ यह भी ध्यान में रखने जैसा है कि बौद्ध जिस सादृश्य को भ्रम का मूल कहता है वैसे सादृश्य को उस के मत में वस्तुभूत ही नहीं माना जाता, तो कैसे वह उस को भ्रम का मूल बता सकता है ? यदि वह सादृश्य को वास्तविक मान लेगा तो जिस सामान्य का वह आज तक विरोध कर रहा है वह उस के गले में आ पडेगा । बौद्ध : हम सामान्यात्मक सादृश्य को नहीं मानते हैं किन्तु एक विज्ञान के उत्पादन क्षणों को ही हम सादृश्य मानते हैं । जैन : यह मानना गलत है क्योंकि एक विज्ञान जनकत्व रूप सादृश्य के कारण यदि वहाँ भेदनिश्चय नहीं हो पाता तो रूप- आलोक और मन इत्यादि में भी भेदनिश्चय न होने से एकत्व का निश्चय सावकाश न जायेगा, क्योंकि उन में एक विज्ञान जनकत्वरूप सादृश्य मौजूद है । बौद्ध : मन आदि का ज्ञान में प्रतिभास नहीं होता अतः उन में एकत्व का निश्चय नहीं हो पायेगा । जैन : [हाँला कि यहाँ रूप और आलोक दोनों एक ज्ञान में भासित होते हैं इस लिये उन दोनों में एकत्व का निश्चय होने की आपत्ति है, फिर भी उस की उपेक्षा कर के व्याख्याकार और एक तथ्य पर ध्यान खिँचना चाहते हैं - ] जब रूपादि की तरह मन आदि भी विज्ञान के जनक हैं तो उन का प्रतिभास ज्ञान में क्यों नहीं होता ? निमित्त की खोज करना होगा । बौद्ध : असारूप्य ही प्रतिभास के अभाव का निमित्त है । जैन : मनस्कार में तो सारूप्य है इस लिये उस के प्रतिभास की आपत्ति तो नहीं टलेगी । ★ विलक्षण पदार्थों में सारूप्य कैसे ? ★ उपरांत, यह भी समस्या है कि बौद्धमत में वस्तुमात्र एक-दूसरे से विलक्षण ही होती है तो उन में सारूप्य कैसे हो सकता है ? यदि एक विज्ञानजनकत्व को सारूप्य मानेंगे तो रूप- आलोकादि में सारूप्य की प्रसक्ति होने से प्रतिभास की आपत्ति रहेगी । यदि कहें कि रूप आलोकादि में एकविज्ञानजनकत्वरूप सारूप्य इष्ट ही है - तो यह कथन युक्त नहीं है, क्योंकि 'सत्' आदि प्रतीति के हेतु होने से सत्त्व आदि स्वरूप सारूप्य की तरह रूप आदि में विज्ञानहेतुत्व स्वरूप सारूप्य तो हम भी मानते हैं किन्तु ऐसे सारूप्य का हम आपादन करना नहीं चाहते, हम तो यह आपादन करते हैं कि रूप आदि विलक्षण पदार्थों में जैसे रूपप्रत्ययहेतुत्वरूप सारूप्य मान्य है वैसे ही 'गो' प्रतीति के हेतुभूत शाबलेयादि गोपिंडो में गोत्वस्वरूप सामान्य क्यों नहीं मान्य करते ? परम्परया वहाँ गोत्व में भी एकपरामर्शहेतुत्व तो विद्यमान है । Jain Educationa International - For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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