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द्वितीय: खण्ड:-का०-२
२३९ विभ्रमनिमित्तं स्यात् - अन्यथा संयुक्तांगुल्योरप्यविवेकनिश्चयः स्यात् - देशनैरन्तर्यसादृश्ययोर्भावात् । सादृश्यनिमित्ता च न सर्वदा भ्रान्तिः स्यात् उपलभ्यते च सर्वदा । न चान्त्यक्षणदर्शिनां विवेकनिश्चयसम्भवादयमदोषः पूर्वमभावात् । सादृश्यनिमित्ता हि भान्तिरवस्थित एव सादृश्ये निवर्तमाना उपलभ्यते अनिवृत्तौ वा नामाद्यर्थयोरपि न कदाचिद् भ्रान्तिनिवृत्तिः स्यात् सर्वदा तयोः सादृश्यात् ।
न चान्यापोहवादिनां भ्रान्तिनिमित्तं सादृश्यं वस्तुभूतमस्ति, सामान्यवादप्रसक्तेः । 'एकविज्ञानजनका एव क्षणाः सादृश्यमुच्यन्ते' इति चेत् ? न, ततो विवेकाऽनिश्चये रूपाऽऽलोक-मनस्कारादीनापि सादृश्यमेकविज्ञानजनकत्वेनास्तीत्येकत्वनिश्चयस्तेष्वपि स्यात् । न च तेषां तत्राप्रतिभासनानासाविति वकव्यम् यतः किमिति तेषां तत्राप्रतिभासनम् इति निमित्तमभिधानीयम् । 'असारूप्यं तनिमित्तम्' पूर्वोत्तरक्षणों में रहा हुआ भेद दृष्टिगोचर न होने से क्षणिकत्व के बारे में निश्चयविकल्प का जन्म नहीं होता। इस स्थिति में, क्षणिकत्व के लिये प्रयोजित अनुमान सार्थक रहता है।
स्याद्वादी : यह बात ठीक नहीं, क्योंकि तब तो उन मंदबुद्धिजनों को घटनाश के उत्तरक्षण में जहाँ कपालक्षण उत्पन्न होता है वहाँ उक्त वासना के कारण घट-कपालक्षण में भेद का निश्चय नहीं होगा। .
क्षणिकवादी : जहाँ भेदबुद्धि नहीं होती वहाँ अत्यन्त समान उत्तरोत्तरक्षण की उत्पत्ति से विप्रलम्भ यानी दृष्टिवंचनारूप निमित्त रहता है । कपालक्षण की उत्पत्ति के काल में वह निमित्त न होने से, भेदनिश्चय होने में कोई बाधा नहीं है।
स्यावादी : अच्छा, जब एक ह्रस्व स्वर के उच्चारण के बाद तुरंत दूसरे ह्रस्व स्वर का उच्चारण किया जाता है वहाँ अत्यन्तसदृशक्षणोत्पत्ति रूप वंचनानिमित्त मौजूद होने से भेद का निश्चय नहीं हो पायेगा ।
क्षणिकवादी : वहाँ एक स्वर के उच्चारण के कुछ क्षण के बाद दूसरे स्वर का उच्चारण होता है , तुरंत नहीं होता, इस लिये दो तुल्य स्वर के श्रवण के बीच में अनुपलम्भ रहता है किन्तु किसी वर्ण के सत्त्व का उपलम्भ नहीं होता, फलत: दोनों का भेद निश्चय हो सकता है।
स्याद्वादी : इस का मतलब यह हुआ कि तुल्यक्षण उत्पत्ति वंचनानिमित्त नहीं है किन्तु शीघ्रोत्पत्ति कालनैरन्तर्य ही वंचनानिमित्त है । यदि इस को छोड कर और किसी को निमित्त मानेंगे तो संयुक्त अंगुलीयुगल में देशनैरन्तर्य
और सादृश्य दोनों मौजूद रहने से वहाँ भी भेदनिश्चय नहीं हो सकेगा। दूसरी बात यह है कि अक्षणिकत्व की भ्रान्ति को यदि सादृश्यमूलक मानेंगे तो वह कभी कभी हो सकती है, लेकिन यह भ्रान्ति तो सर्वदा होती है वह वास्तव में नहीं हो पायेगी, क्योंकि छीप में सादृश्यमूलक जो रजत भ्रान्ति होती है वह कभी कभी होती है सर्वदा नहीं होती इस से यह फलित होता है कि सादृश्यमूलक भ्रान्ति कदाचित् ही होती है, सर्वदा नहीं । क्षणिकवादी ऐसा कहें कि - 'हाँ यह अक्षणिकत्व की भ्रान्ति भी सर्वदा नहीं होती क्योंकि अन्त्यघटक्षण दर्शन के बाद कपालक्षण का भेदनिश्चय होता ही है अत: सादृश्यमूलकभ्रान्ति सर्वदा होने में हमारी सम्मति है, कोई दोष नहीं है।' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ तो सादृश्यनिमित्त नहीं है और सदृशक्षणों की पूर्व में जो परम्परा चलती थी वहाँ तो भेदनिश्चय नहीं होता किन्तु अक्षणिकत्व की भ्रान्ति भी होती रहती है । सादृश्यमूलक जो भ्रान्ति होती है वह सादृश्य के रहते हुए भी छीप का स्पष्ट दर्शन (शुक्तित्व का ज्ञान) होने पर निवृत्त हो जाती है । यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो कभी एक बार नाम-रूपादि के सादृश्य से चैत्र के बदले मैत्र की भ्रान्ति हो जाने पर वह सर्वदा होती रहेगी, कभी भी विशेषदर्शन के बाद निवृत्ति नहीं हो पाएगी क्योंकि नामादि
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