SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् एतदप्ययुक्तम् यतः स्यादभेदे सकृद् ग्रहणं यदि तल्लक्षणोऽभेदः स्यात् यावता नाभेदस्यैतल्लक्षणम् घटाद्याकारपरिणतेष्वनेकपरमाणुषु सकृद् ग्रहणस्य भावेनाऽतिव्यापकत्वात् । अव्यापकं चैतद् अभेदेऽपि सत्त्वानित्यत्वयोरभावात् भावे वा सत्त्वप्रतिपत्तौ क्षणक्षयस्यापि प्रतिपत्तेरनुमानवैफल्यप्रसक्तिः, यथाsनुभवं निश्चयोत्पत्तेः सत्त्ववत् क्षणिकत्वस्यापि तदैव निश्वयात् । “अनादिभवाभ्यस्ताऽक्षणिकादिवासनाजनितमन्दबुद्धेः पूर्वोत्तरक्षणयोर्विवेकनिश्चयानुत्पत्तेरनुमानस्य साफल्यम्" इति चेत् ? न, घट-कपालक्षणयोरप्यविवेकनिश्रयप्रसक्तेः । अथात्र सदृशापरापरोत्पत्तेर्विप्रलम्भनिमित्तस्याभावान्न प्रसंग: तर्हि ह्रस्ववर्णद्वयोच्चारणे तत्प्रसक्तिः । तयोरानन्तर्याद् वर्णद्वयान्तराले सत्त्वोपलम्भभावात् तदप्रसंगे लघुवृत्ति २३८ - क्योंकि प्रत्येक उपाधि के प्रति उपकारक शक्ति उपाधिमत् से अभिन्न होने का निश्चय पूर्वलब्ध है । यह भी इसलिये कि उपकारक का निर्णय उपकार्यरूप अपने सम्बन्धी के ज्ञान के विना नहीं होता जैसे दण्ड के विना 'दण्डी' ऐसा ज्ञान नहीं होता । अतः एक उपाधि के द्वारा भी जो उपाधिमत् उपकारक का ज्ञान होगा वह अपने से उपकार्य उपाधिसमुदाय को साथ लेकर ही होगा । यदि शक्ति उपाधिमत् से भिन्न मानेंगे तो उन दोनों के बीच सम्बन्ध की संगति न होने से उपाधि के ऊपर उपाधिमत् का उपकार भी संगत नहीं होगा । यदि उपकार कराना हो तो पहले शक्ति के साथ सम्बन्ध जोडना होगा, उस के लिये अन्य उपकारक शक्ति माननी पडेगी, फिर उपकारशक्ति के साथ भी उपकारक उपाधिमत् के भेदाभेद की चर्चा करनी पडेगी जिस का अन्त नहीं आयेगा । और किसी तरह उपकार की संगति बैठा ली जाय तो एक उपाधि के द्वारा सर्वात्मना यानी सर्व उपाधिसमुदाय के साथ उपाधिमत् का निश्चय हो जाने की विपदा निवृत्त नहीं होगी । सारांश किसी भी तरह सामानाधिकरण्य संगत नहीं है । विकल्प की तो यही तासीर है कि वस्तु के न होने पर भी ऐसा कुछ आभास खडा कर 1 देता है । ★ अभेद के विना भी एक साथ ग्रहण - उत्तरपक्ष★ स्याद्वादी : धर्म-धर्मी के भेद-अभेद किसी भी एक विकल्प में सामानाधिकरण्य संगत न होने की अपोहवादी की बात में कुछ तथ्य नहीं है । कारण अभेदपक्ष में यदि अभेद की यह व्याख्या हो कि एक साथ ग्रहण होना तब तो यहाँ अभेद होने पर एक साथ ग्रहण की आपत्ति का भय दिखाना सार्थक होता किन्तु अभेद की यह व्याख्या ही ठीक नहीं है । बौद्ध तो घटादि को एक अवयवी न मान कर परमाणुपुत्र मानता है, वहाँ सकृद्ग्रहण यानी एक साथ 'यह घट है' ऐसा सभी परमाणुओं का ग्रहण होता है किन्तु अभेद नहीं होता, इस लिये अभेद की वह व्याख्या गलत है क्योंकि सकृद् ग्रहण अभेद न होने पर भी है अतः अतिव्याप्ति है । अव्याप्ति भी है, शब्दादि एक वस्तु सत् भी है अनित्य भी है, सत्त्व और अनित्यत्व में भेद नहीं अभेद है किन्तु सत्त्व के प्रत्यक्षकाल में सत्त्व के साथ अनित्यता का ग्रहण नहीं होता । यदि वैसा होता तब तो सत्त्व के साथ क्षणिकत्व का भी दर्शन हो जाने से, क्षणिकत्व को सिद्ध करने के लिये प्रयोजित अनुमान निरर्थक बन जायेगा । एवं दर्शन के अनुसार विकल्पनिश्चय उत्पन्न होता है, जैसे सत्त्वदर्शन के बाद सत्त्व का निश्चय अनुभवसिद्ध है वैसे अनित्यत्व दर्शन के बाद अनित्यत्व का निश्चय भी प्रसक्त होगा । क्षणिकवादी : मन्दबुद्धि लोगों को अनादिकाल से वस्तु अक्षणिक होने की वासना प्रवाहित रहती है, स्वलक्षण का सर्वात्मना अनुभव होता है उस में क्षणिकत्व भी अनुभूत रहता है किन्तु उक्त वासना के कारण, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy