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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
२३७ नफलत्वाभावात् तद्भेदे (अभेदे!) सकृद् ग्रहणस्यावश्यं भावित्वात् तल्लक्षणत्वादभेदस्य, अन्यथा गृहीतागृहीतयोर्भेदप्रसक्तेः । धर्म-धर्मिणोर्भेदपक्षेऽपि घट-पटादिशब्दवदेकत्राऽवृत्तेर्भवेदुपाधिद्वारेणैकत्रोपाधिमति शब्दविकल्पयोः प्रवृत्तिः यदि तयोरुपकार्योपकारकभावः स्यात्, तदभावे पारतन्त्र्याऽसिद्धेः तयोरुपाध्युपाधिमद्भावाभावा तद्द्वारेणापि तयोस्तद्वति वृत्तियुक्ता । तयोरुपकार्योपकारकभावे उपाध्युपकारिका श. क्तिरुपाधिमतो यद्यभिन्ना तदैकोपाधिद्वारेणाप्युपाधिमतः प्रतिपत्तौ सर्वोपाध्युपकारकस्वरूपस्यैव तस्य निश्चयादुपकार्यस्योपाधिकलापस्याप्यशेषस्य निश्चयप्रसक्तिः । उपकारकनितिरुपकार्यनिश्चयनान्तरीयकत्वात् उपाधिमतो भेदे तच्छक्तेः सम्बन्धाभावः । ततस्तासामनुपकारात् उपकारे वा तदुपकारशक्तीनामप्युपाधिमतो भेदाऽभेदकल्पनायामनवस्था सर्वात्मना ग्रहणं च प्रसज्यते इति । -
और अनेकत्व का सामानाधिकरण्य बाह्यार्थ में उपलब्ध कराती है इसलिये बाह्यार्थ में ही सामानाधिकरण्य का व्यवहार मान लेना चाहिये, विकल्पप्रतिबिम्ब में नहीं ।
* समानाधिकरण्यव्यवहार विभ्रमस्वरूप -- पूर्वपक्ष★ बौद्धवादी : यह जो सामानाधिकरण्य का व्यवहार है वह सब विकल्पकृत विभ्रम है । वास्तव में सामानाधिकरण्य ही संगत नहीं होता । कारण नील-उत्पल आदि शब्द या शब्दजन्य विकल्प से जो नील या उत्पल का बोध होता है वह सर्वथा भिन्न भिन्न होता है, इसलिये एकार्थवृत्तित्व रूप सामानाधिकरण्य हो ही नहीं सकता । धर्म-धर्मी के बीच या तो भेद हो अथवा अभेद, और तो तीसरा कोई विकल्प ही नहीं है । यदि उत्पल धर्मी और नीलधर्म का अभेद मानेंगे तो एक उत्पलादि शब्द से या उस के एक विकल्प से उत्पलादिस्वलक्षण अपने संपूर्ण स्वभाव के साथ विषय बन जायेगा । अब उस के एकार्थवृत्ति अन्य नीलादि शब्द से नया तो कुछ फल आने वाला नहीं है । वह नीलादि यदि उत्पल से अभिन्न है तब तो उत्पल के ग्रहण के साथ ही उस का भी ग्रहण अवश्यंभावि है क्योंकि अभेद होने का मतलब ही यह है कि एक साथ गृहीत हो जाना । यदि एक गृहीत होने पर दूसरा अग्रहीत रहता है तो वहाँ भेद प्रसक्त होता है ।
यदि धर्म-धर्मी में भेद मानेंगे तो इस पक्ष में भी सामानाधिकरण्य नहीं घट सकता, क्योंकि घट-पट में भेद होता है तभी तो उन दोनों के वाचक घट-पट शब्दों में सामानाधिकरण्य का अभाव होता है। इसी तरह नील-उत्पल में भेद होने पर भी समझ लो । यदि कहें कि - 'वहाँ नीलत्व - उत्पलत्व उपाधिभेद होने पर भी उपाधिमान् नील और उत्पल में भेद नहीं होता इस लिये भिन्न भिन्न उपाधि के बोध द्वारा दो शब्द या दो विकल्प की एकार्थ में वृत्ति (यानी बोधकता) हो सकेगी' - तो यह ठीक नहीं है, उपकार्य-उपकारक भाव होने पर ही उपाधि-उपाधिमत् भाव बन सकता है । उपाधि का मतलब है उपाधिमत् को परतन्त्र । उत्पल जैसा उपाधिमत् जब नीलादि उपाधि का उपकारी होगा तभी उपाधि उस की परतन्त्र रहेगी, किन्तु यहाँ उपाधिमत् का उपाधि पर कोई उपकार न होने से उपाधि-उपाधिमत् भाव ही मौजूद नहीं है । इसलिये उपाधि के द्वारा भी नील-उत्पल शब्दों का एकार्थवृत्तित्व घट नहीं सकता । यदि यहाँ उपाधिमत् को उपाधि का उपकारी मान लिया जाय तो यह प्रश्न भी खडा होगा कि उपाधिमत् में जो उपकारशक्ति है वह यदि उस से अभिन्न है तब तो एक उपाधि के द्वारा जब तथाविधशक्तिशाली उपाधिमत् का ग्रहण होगा उसी वक्त अपने उपकार्य जितनी भी उपाधियाँ नीलत्व-उत्पलत्व-द्रव्यत्व आदि है उन सभी का संपूर्ण उपाधिमत् के ग्रहण से निश्चय हो जायेगा,
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