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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् न च भ्रान्तोऽयं भेदप्रतिभासः अबाधितत्वात्। न चाऽभिन्नयोगक्षेमत्वादिति बाधकम्, अस्याऽसाध्याऽव्यतिरेकिणोऽयथोक्तलक्षणत्वात् प्रतीयमानयोश्चैकत्वाऽनेकत्वयोः को विरोधः ? न चेयं प्रतीतिर्मिथ्या बाधकाभावात् । न च विरोध एवास्या बाधकः, विरोधाऽसिद्धेरितरेतराश्रयत्वात् । तथाहि अस्याः प्रतीतेबर्बाधायां विरोधः सिध्यति, तत्सिद्धौ चातस्तस्या बाधेति परिस्फुटमितरेतराश्रयत्वम् । न प्रतीतेरन्यदस्ति विरोधसाधकमित्यस्तु बहिरेव सामानाधिकरण्यव्यवहारः, तथैवास्योपलब्धेः ।।
अथ विकल्पस्यायं विभ्रमः, बहिः सामानाधिकरण्यादेरयोगात् नानाफलयोर्नीलोत्पलादिशब्दविकल्पयोरेकस्मिन्नर्थे वृत्तिविरोधात् । धर्म-धर्मिणोरेकान्तभेदाभेदयोर्गत्यन्तराभावात् तयोश्चाऽव्यतिरेकाभ्युपगमे शब्देन विकल्पेन चैकेन स्वलक्षणस्य विषयीकरणेऽशेषस्वभावाक्षेपादपरस्य शब्दादेस्तदेकवृत्तेस्तद्भि
स्याद्वादी : यह कल्पना निर्दोष नहीं है, योग-क्षेम समान होने मात्र से स्वभावभेद का उच्छेद नहीं हो जाता, अत: अनेकत्व नहीं है ऐसा नहीं है । आप भी जानते हैं कि कुछ सहभाविचित्त और चैत्त (= शब्द - रूपादि) पदार्थ भिन्न भिन्न होने पर भी उन में समान योगक्षेम होते हैं, वे भी समानकाल में उत्पन्न होते है, नष्ट होते हैं । उस का मतलब यह नहीं होता कि चित्त और चैत्त एक होते हैं ।
विज्ञानवादी : चित्त और चैत्त में कभी कभी समान योगक्षेम अकस्मात् होने पर भी नियमत: नहीं होते, क्योंकि जो सहभावी नहीं होते उन में समान योग-क्षेम का विरह होता है।
स्याद्वादी : अरे ऐसे तो ज्ञान और नीलादिप्रतिभासों में भी नियमतः समान योग-क्षेम नहीं होते, पृथक् पृथक् आश्रय में जो नीलप्रतिभास, पीतप्रतिभास उत्पन्न होते हैं, उन में ज्ञान के साथ समान योगक्षेम नहीं होता है।
विज्ञानवादी : भिन्न भिन्न आश्रय में - ज्ञान में उत्पन्न नीलादिप्रतिभासों में समान योगक्षेम नियमतः न होने पर भी एकज्ञानोत्पन्न नीलादिप्रतिभासों में वह नियमत: होता है इस लिये एकत्व माना जा सकता है ।
स्याद्वादी : ऐसे तो जो सहभावि चित्त-चैत्त होते हैं उन में भी नियमत: समान योगक्षेम मौजूद रहता है किन्तु वहाँ एकत्व नहीं होता । इस लिये समान योगक्षेम एकत्वप्रयोजक नहीं हो सकता ।
दूसरी बात यह है कि नीलादिप्रतिभासों में सर्वथा एकत्व होने में प्रत्यक्ष विरोध है । प्रत्यक्ष से तो वहाँ प्रतिभासभेद दृष्टिगोचर होने से भेद ही सिद्ध होता है । इस भेदप्रतिभास को भ्रान्त नहीं बता सकते क्योंकि इस में कोई बाध नहीं है । 'अभिन्न योगक्षेमत्व ही यहाँ भेदबाधक है' ऐसा भी कहना दुष्कर है क्योंकि 'अभेद के अभाव में समानयोगक्षेम नियमत: नहीं होता' ऐसा नहीं है इसलिये साध्यशून्य विपक्ष से समानयोगक्षेमत्व का व्यतिरेक न होने से वह अभेदसाधक या भेदबाधक नहीं हो सकता।
जहाँ एकत्व-अनेकत्व की समानाधिकरण स्फुटप्रतीति होती है वहाँ विरोध को पैर रखने के लिये स्थान ही कहाँ है ? इस प्रतीति को मिथ्या नहीं कह सकते, क्योंकि उस में कोई बाधक नहीं है । 'विरोध ही बाधक है' ऐसा कहना गलत है क्योंकि विरोध सिद्ध नहीं है अत: इतरेतराश्रय दोष को अवसर मिलता है - देखिये, यदि इस प्रतीति में कोई बाध सिद्ध हो तब एकत्व-अनेकत्व का विरोध सिद्ध होगा, जब यह विरोध सिद्ध होगा तब उस प्रतीति में बाध सिद्ध होगा, इस ढंग से स्पष्ट ही अन्योन्याश्रय दोष अवसरप्राप्त है । जब प्रतीति के अलावा कोई विरोधसाधक उपाय नहीं है तब प्रतीति के अनुसार अर्थ की व्यवस्था होनी चाहिये । प्रतीति एकत्व
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