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द्वितीयः खण्डः - का० - २
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बुद्धिमालिष्यतीत्यभ्युपगम्यते । ननु बहिर्भूतेनार्थेन वैचित्र्यस्य कोऽपराधः कृतो यत् तन्नास्कन्दतीति । अथैकत्वनानात्वयोर्विरोध एवापराधः । नन्वयं विज्ञानेऽपि समानः । न च बुद्धेर्नीलादिप्रतिभासानामेकयोगक्षेमत्वात् तदेकत्वम्, एकयोगक्षेमत्वेन स्वभावभेदाऽनिराकरणात् सहभाविनां चित्तचैत्तानां नानात्वे sप्येकयोगक्षेमत्वस्य भावात् । अथ चित्तादावभिन्नयोगक्षेमस्य नियमवतोऽभावः असहभाविनां तेषामभिन्नयोगक्षेमत्वस्याभावात् । न नीलादिप्रतिभासेष्वपि नानाश्रयेषु तस्याभावात् । - ' अभिन्नाश्रयेष्वभिन्नयोगक्षेमनियमसद्भावो नीलादिप्रतिभासेषु' इति चेत् ? न, सहभाविचित्त- चैतेष्वप्यस्य समानत्वात्, सहभाविनां तेषां तथैवानुभवात् । सर्वथैकत्वं च नीलादिप्रतिभासानामध्यक्षविरुद्धम् प्रतिभासभेदाद् भेदसिद्धेः । ज्ञान का संवेदन ज्ञान में अनेकत्व के न होते हुये भी अनेकाकारग्राही होता है - तो यहाँ फिर से प्रश्न है कि वह संवेदन स्वयं एक होते हुए अनेकाकार कैसे हो सकेगा ? जब उसमें भी अनेकत्व को अतात्त्विक बतायेंगे
फिर से पूर्वोक्त दोषपरम्परा की अनवस्था चलेगी । हाँ यदि आप ज्ञान में पारमार्थिक अनेकाकारता मान लेंगे तो संवेदन से उस एक ज्ञान में भी अनेकत्व स्थापित कर सकते हैं, लेकिन तब अनेकान्तवाद का स्वागत करना पडेगा ।
दूसरा दोष यह है कि बुद्धिगत अनेकत्व यदि अतात्त्विक है तो इसका मतलब यह हुआ कि अनेकत्व बाह्य रूप से तो असत् है लेकिन आन्तररूप से भी असत् है । असत् पदार्थ का कभी विशद भान नहीं होता जब कि अनेकत्व का विशद भान होता है, यदि वह असत् है तो उसका विशद भान कैसे होगा ? सच बात यह है कि बुद्धि स्वतः निराकार होती है, अर्थ के आलम्बन से उस में साकारता होती है, किन्तु आप अर्थ का अपलाप करने के लिये बुद्धि में द्विरूपता धर्मद्वय को मानने पर तुले हो वह उसकी निराकारता के कारण सम्भव नहीं है ।
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★ बाह्यार्थ में एकानेकरूपता अविरुद्ध ★
विज्ञानवादी : एक बुद्धि मे हम जो द्विरूपता का साधन करते हैं वह सिर्फ बाह्यार्थ का अभाव सिद्ध करने के लिये है, बाह्यार्थ के असिद्ध हो जाने के बाद तो एक में अनेकत्व का विरोध दिखा कर द्विरूपता का भी हम निराकरण कर देंगे ।
स्याद्वादी : यह तरीका गलत हैं क्योंकि बाह्यार्थ का निराकरण करने के लिये जब आप द्विरूपता का शस्त्र उठायेंगे उसी वक्त एक में अनेकत्व का विरोध उपस्थित हो कर द्विरूपता को परास्त कर देगा, तब बाह्यार्थ का अभाव कैसे सिद्ध होगा ? यदि इस दोष का परिहार करने के लिये विरोध को गौण करके बुद्धि में तात्त्विक वैचित्र्य (= अनेकत्व) का स्वीकार कर लेंगे तब बाह्यार्थ ने क्या अपराध किया है कि आप वहाँ एकानेकरूपता का विरोधभय प्रदर्शित करके उस का निरसन करने पर तुले हैं ? यदि कहें कि
एकत्व - अनेकत्व का विरोध
ही बाह्यार्थ का अपराध है - तो यह अपराध विज्ञान में भी ओझल नहीं किया जा सकता ।
★ तुल्य योगक्षेम से एकत्वसिद्धि असंभव ★
विज्ञानवादी : बुद्धि और उस के अन्तर्गत नीलादि प्रतिभासों में समान योग-क्षेम होता है, जैसे समानहेतुक उत्पत्ति, समानकालीनता एवं समकालीननाश....इत्यादि, इस से यह फलित होता है कि बुद्धि और नीलादिप्रतिभास एक ही है । जब उन में अनेकत्व ही नहीं है तब विरोधापादन कैसे ?
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