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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
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तकरणं विवक्षितार्थप्रतिपत्त्यर्थं न भवेत्, न ह्येकान्तनित्येषु शब्देषु तत्सम्बन्धे वा ताल्वादिव्यापारः संकेतो वा कदाचिदभिव्यंजकः कदाचिन इति युक्तमुत्पश्यामः। तदर्थस्यापि सामान्यस्य नित्यत्वे तदवस्थः प्रसंगः। तत् पुनः सामान्य व्यक्त्या क्वचित् कदाचित् व्यज्यते न वेति व्यक्ताव्यक्तस्वभावभिन्नं नित्यत्वैकान्तमतिवर्त्तते । सामान्यानां च सर्वगतत्वे शब्दतत्सम्बन्धवदभिव्यक्तिसांकर्यमासज्यते, इदमस्यां व्यक्तौ वर्त्तते नेतरस्याम् इति विशेषाभावात् कुतः समवायिनियमः स्यात् ? संस्थानादिव्यतिरिक्तं सामान्यं कचिदप्यनुपलभ्यमानं कथं शब्दसंकेतविषयो भवेत् येन तत् तच्छब्दाभिधेयं स्यात्" -
इत्यादिकमपि दूषणमस्मन्मतानुपाति स्यात् । है, यानी उस का मिथ्याआभास ही होता है, वास्तव में कुछ भी तत्त्व अस्तित्व में नहीं है, इस लिये किसी से भी तत्त्व की व्यवस्था होने का प्रश्न ही नहीं है जिस से कि हमारे मत में अव्यवस्थारूप दोष थोपा जा सके ।' - यह कथन गलत है क्योंकि अग्रिम ग्रन्थ में हम सर्वशून्यतावाद का प्रतिषेध कर दिखलायेंगे ।
सारांश, प्रमाण से व्यवहार करने वाले आप अगर प्रत्यक्ष या अनुमान को प्रमाण मानते हैं, तो शब्द को भी बाह्यार्थ में प्रमाण मानना अनिवार्य है, क्योंकि प्रामाण्य का प्रयोजक होता है सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थ का सम्बन्ध, जो कि परम्परा से शब्द के साथ भी मौजूद है । नेत्र आदि के द्वारा जैसे नियमत: बाह्यार्थ का भान, उस में प्रवृत्ति और उस की प्राप्ति आदि व्यवहार सम्पन्न होता है वैसे ही शब्द के द्वारा भी नियमत: बाह्यार्थ के उक्त व्यवहार सम्पन्न होते हैं । गुणदोष तो जैसे नेत्रादि में होते हैं वेसे ही शब्द में भी हो सकते हैं।
★ मीमांसक मत के दोष जैन मत में निरवकाश ★ हमारा (जैनों का) मत मीमांसक जैसा नहीं है, मीमांसक मत में सर्वज्ञ मान्य न होने से, शब्द-अर्थ का सम्बन्ध वेद की तरह अपौरुषेय माना गया है, किन्तु जैन मत में तो शब्द और अर्थ का स्वाभाविक वाच्य-वाचकभाव सम्बन्ध माना गया है इस लिये मीमांसक मत के ऊपर जो निम्नलिखित दोषारोपण बौद्ध की और से किया गया है वह जैन मत में लागु नहीं होता।
बौद्ध की ओर से मीमांसक को यह कहा गया है कि नृत्यादिक्रिया जैसे विकल्पजन्य होने से अपौरुषेय नहीं होती ऐसे ही शब्दार्थसम्बन्ध भी विकल्पकृत होने से अपौरुषेय नहीं हो सकता । शब्द में यदि स्वत: अर्थबोधनयोग्यता होती तो संकेत से अज्ञात व्यक्ति को भी शब्द सुनने पर यथार्थबोध उत्पन्न हो जाने से संकेत की निरर्थकता प्रसक्त होगी। यदि कहें कि - 'शब्द-अर्थ के स्वाभाविक सम्बन्ध की अभिव्यक्ति के लिये संकेत उपयोगी हो कर सार्थक होता है' - तो यह कल्पना व्यर्थ है क्योंकि संकेतकर्ता अपनी मर्जी अनुसार विविध अर्थों में शब्द का संकेत करते हैं और तदनुसार अर्थबोध भी होता है - इस की संगति नहीं होगी यदि संकेत को स्वाभाविकसम्बन्ध की अभिव्यक्ति में उपयोगी मानेंगे तो । दूसरी बात यह है कि प्रदीप से घट की तरह अभिव्यंजक का संनिधान नियमत: अभिव्यंग्य की उपलब्धि निपजावे ऐसा है नहीं । अत: शब्दनित्यत्ववादी के मत में जैसे शब्दाभिव्यक्ति में सांकर्य दोष प्रसक्त होता है वैसे ही सम्बन्धाभिव्यक्ति में भी सांकर्य दोष प्रसक्त होगा, अर्थात् किसी एक शब्दार्थ सम्बन्ध की अभिव्यक्ति करने पर अन्य अन्य शब्दार्थसम्बन्ध की अभिव्यक्ति का अनिष्ट होगा । फलत: संकेत सम्बन्ध की अभिव्यक्ति के बारे में कोई व्यवस्थित नियम के न रहने से विवक्षित अर्थ के बोध में भी कोई स्पष्ट नियम नहीं रहेगा । परिणास्वरूप, प्रत्येक वाचक शब्द से एक साथ ही सभी अर्थों का बोध हो जाने की विपदा आयेगी । सारांश, विवक्षित अर्थबोध के लिये संकेत की उपयोगिता नहीं हो सकती ।
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