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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् ___यदपि विजातीयव्यावृत्तान्यपदार्थानाश्रित्यानुभवादिक्रमेण यदुत्पन्नं विकल्पकं ज्ञानं तत्र यत् प्रतिभाति ज्ञानात्मभूतं विजातीयव्यावृत्तपदाकारतयाध्यवसितमर्थप्रतिबिम्बकं तत्र 'अन्यापोहः' इति संज्ञा [पृ०७७ पं०८] तत्रापि विजातीयव्यावृत्तपदार्थानुभवद्वारेण शाब्दं विज्ञानं तथाभूतपदार्थाध्यवसाय्युत्पद्यते इत्यत्राऽविसंवाद एव, किन्तु तत् तथाभूतपारमार्थिकार्थग्राह्यभ्युपगन्तव्यम् अध्यवसायस्य ग्रहणरूपत्वात् । विजातीयव्यावृत्तेस्तु समानपरिणतिरूपतया वस्तुधर्मत्वेन व्यवस्थापितत्वाद् अन्यापोहशब्दवाच्यतापि तत्राsऽसज्यमाना नास्मन्मतक्षतिमावहति, संकेतविशेषसव्यपेक्षस्य तच्छब्दस्य तत्रापि प्रवृत्त्यविरोधात् । यच्च 'तत्प्रतिबिम्बकं शब्देन जन्यमानत्वात् तस्य कार्यमेव इति कार्यकारणभाव एव वाच्य-वाचकभावः' [७७ -१०] - तदसंगतम्, शब्दाद् विशिष्टसंकेतसव्यपेक्षाद् बाह्यार्थप्रतिपत्तेस्तत्पूर्वक्प्रवृत्त्यादिव्यवहारस्यापि तत्रैव भावात् स एव बाह्यः शब्दार्थो युक्तः न तु विकल्पप्रतिबिम्बकमात्रम्, शब्दात् तस्य वाच्यतया प्रतिपत्तेः । तथाभूतशब्दात् तथाभूतपारमार्थिकबाह्यार्थाध्यवसायि ज्ञानमुत्पद्यत इत्यत्राऽविवाद एव ।।
यच्च 'प्रतिबिम्बस्य मुख्यमन्यापोहत्वं विजातीयव्यावृत्तस्वलक्षणस्यान्यव्यावृत्तेश्चौपचारिकम्' [७८६] इति तदप्यसंगतम्, शब्दवाच्यस्य वस्तुस्वरूपस्य द्यपोहत्वं तदाऽनन्तधर्मात्मके वस्तुन्युपसर्जनीकृतविशेषस्य पारमार्थिकवस्त्वात्मकसामान्यधर्मकलापस्य शब्दवाच्यत्वात् कथमन्यव्यावृत्तस्वलक्षणस्योपचारेणायह प्रमाण है कि क्षणिकत्वादिरूप से घटादि का निश्चय किसी को भी नहीं होता । इस तरह बौद्ध अभिमत प्रत्यक्ष प्रमाण भी अन्यस्वरूप वस्तु को अन्यप्रकार से उद्भासित करता है इसलिये भ्रान्त अंगीकार करना होगा । हमारे स्याद्वादमत में तो यह दोष सावकाश नहीं है क्योंकि तत्त्वार्थसूत्रकार श्री उमास्वाति भगवंतने कहा है'मतिज्ञान (इन्द्रियप्रत्यक्षादि) एवं श्रुतज्ञान (शाब्दबोध) ये दोनों का विषय सर्वद्रव्य है किन्तु सर्व पर्याय नहीं है।' इस तरह प्रत्यक्ष और शाब्दबोध को समानविषयक बता दिया है । तात्पर्य यह है कि जैसे शब्द सर्वविशेष-उद्भासक नहीं होता वैसे इन्द्रिय प्रत्यक्ष भी सर्वविशेषग्राही नहीं होता, किन्तु इस आधार पर उनको भ्रान्त नहीं कह सकते ।
निष्कर्ष यह है कि गौण-मुख्यभाव से अनेकान्तात्मक वस्तु ही प्रमाण का गोचर होता है, इसलिये सामान्यविशेषात्मक वस्तु प्रत्यक्ष का विषय है, उसमें जब शब्दसंकेत किया जाता है तब वही सामान्यविशेषात्मक भाव शब्दार्थ बन जाता है । यही कारण है कि, अपोहवादीने पहले [पृ० २० पं. २१] स्वलक्षण को, जाति को, जाति के सम्बन्ध को, जातिमान् पदार्थ को अथवा बुद्धि या बुद्धि के आकार को शब्दार्थ मानने के पक्ष में जिन दोषों का प्रतिपादन किया है वे सामान्यविशेषात्मक शब्दार्थवादी जैनों के. मत में निरवकाश हैं। इसी तरह अस्त्यर्थ, समुदाय, असत्यसम्बन्ध, असत्योपाधिसत्य, अभिजल्प, बुद्धि-अधिरूढ आकार अथवा प्रतिभा को शब्दार्थ मानने के पक्ष में जो अपोहवादीने पहले [पृ० ३१-२७] विस्तार से दोषापादान किया है वह भी सामान्य-विशेषात्मकवस्तु-शब्दार्थप्ररूपक अनेकान्तवाद पक्ष में निरवकाश है, क्योंकि एकान्तवाद के सिर पर जो दोष लगाये जाते हैं, वे अनेकान्तवाद के सिर पर आ कर नहीं बैठ सकते ।
★ समानपरिणति ही अन्यापोह है* पहले जो अपोहवादीने कहा था (पृ० ७७ पं० २५)- “विजातीयव्यावृत्त पदार्थों के आलम्बन से अनुभव होने के बाद क्रमश: विकल्पज्ञान का उदय होता है । उस विकल्प में ज्ञान से अभिन्न एवं विजातीयव्यावृत्तआकार में अध्यवसित- ऐसा जो अर्थप्रतिबिम्ब स्फुरित होता है उसी की 'अन्यापोह' संज्ञा है ।' - यहाँ, इस बात
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