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________________ द्वितीयः खण्डः - का० - २ न चाऽशेषविशेषाध्यासितवस्तुप्रतिभासविकल्प ( ? ल ) स्य शाब्दप्रत्ययस्यान्यथाभूते वस्तुन्यन्यथाभूतावभासित्वेन प्रवृत्तेर्भ्रान्तत्वम्, प्रत्यक्षस्यापि तथाऽवभासित्वेन भ्रान्तत्वप्रसक्तेः । न ह्यस्मदादिप्रत्यक्षे क्षणिकनैरात्म्याद्यशेषधर्माध्यासितसंख्योपेतघटाद्याकारपरिणतसमस्तपरमाणुप्रतिभासः, तथैवाऽनिश्चयात् । अत एव- 'मतिश्रुतयोर्निबन्धो 'द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु' [ तत्त्वार्था० अ० १ सू० २९] इति समानविषयत्वमध्यक्ष - शाब्दयोः तत्त्वार्थसूत्रकृता प्रतिपादितम् । यदा च प्रधानोपसर्जनभावेनानेकान्तात्मकं वस्तु प्रमाणविषयस्तदा यत्रैव संकेत: प्रत्यक्षविषये स एव सामान्य विशेषात्मकः शब्दार्थ इति केवलस्वलक्षण-जाति- तद्योगजातिमत्पदार्थ - बुद्धि- तदाकारपक्षभाविनो दोषा अनास्पदा एव । न ह्येकान्तपक्षभाविदोषाः अनेकान्तवादिनं समाश्लिष्यन्ति । अस्त्यर्थादिशब्दार्थपक्षेष्वपि सामान्य- विशेषैकान्तपक्षसमाश्रयणात् यद् दूषणम् तदप्यस्मत्पक्षाऽसंगतमेव उक्तन्यायात् । का प्रतिभास अस्पष्ट जरूर होता है किन्तु भ्रान्त नहीं होता, जैसे दूरस्थ वृक्षादि भी प्रत्यक्षप्रतीति में अस्पष्ट भासित होते हैं किन्तु भ्रान्ति नहीं होती । २३१ इसी सबब से यह जो किसीने आपत्ति जतायी है- "इन्द्रिय से गृहीत होने वाला अर्थ और शब्द से बोधित अर्थ दोनों भिन्न भिन्न होते हैं । इसीलिये दृष्टिविहीन ज्ञाता को वस्तु का साक्षात्कार नहीं होता किन्तु शब्द से बोध होता है । [तात्पर्य, दृश्य अर्थ स्पष्ट होता है जब कि विकल्प अर्थ अस्पष्ट होता है इसलिये उन दोनों में भेद मानना चाहिये ] । दाहक (अग्नि) के संयोग से जो दाह का ( जलन का ) साक्षात्कार होता है वह, और 'दाह' शब्द से जो दाह का प्रतिभास होता है वे दोनों भिन्न भिन्न ही प्रतीत होते हैं [ इसलिये भी दृश्य और विकल्प्य अथों में भेद मानना चाहिये ] । तथा, नेत्रव्यापार के विना, जैसा दर्शन में अर्थ प्रतिभासित होता है वैसा शाब्दिक बुद्धि में भासित नहीं होता है इस लिये शाब्दबुद्धि दृश्यभिन्न अर्थ की वेदक है । [ अर्थात् स्वलक्षण उसका विषय नहीं है ] ऐसा जो शाब्दबोध के अस्पष्ट प्रतिभास को लेकर प्रतिवादीयों ने कहा है वह परास्त हो जाता है । कारण, सिर्फ शाब्दबोध में ही नहीं, प्रत्यक्ष में भी स्वलक्षण का कभी अस्पष्ट प्रतिभास होता है यह सप्रमाण कहा जा चुका है । वस्तु एक ही होती है फिर भी जब विशेषस्वरूप गौण होकर मुख्यतया सामान्य स्वरूप का प्रतिभास होता है तब उसे अस्पष्ट प्रतिभास कहा जाता है, सामग्री की उत्कटता ( सशक्तता) होती है तब सामान्य गौण हो कर विशेषस्वरूप का प्रतिभास होता है तब उसे स्पष्ट कहा जाता है । वस्तु सामान्य विशेष उभयात्मक है यह तो पहले कह आये हैं, और आगे भी प्रस्तावोचित कहा जायेगा । अतः 'एक वस्तु में दो विरोधाभासी स्वरूप नहीं होते... क्योंकि एकत्व का द्वित्व के साथ विरोध है' - [पृ० २६ पं० २८] यह प्रतिपादन असंगत ठहरता है । - ★ शाब्द प्रतीति भ्रान्त नहीं होती ★ यदि यह कहा जाय 'शाब्द प्रतीति सकल विशेषों से संकलित वस्तु के साक्षात्कार से शून्य होती है, इसलिये वह अन्यस्वरूप वस्तु को अन्य प्रकार से उद्भासित करती है, इसलिये शाब्द प्रतीति भ्रान्त होती है' - यह कथन अयोग्य है क्योंकि हम लोगों के प्रत्यक्ष में तो क्षणिकत्व - नैरात्म्य आदि बौद्ध अभिमत सकल धर्मों से विशिष्ट एवं संख्याविशिष्ट घटादि आकार में परिणत परमाणुसमुदाय भी भासित नहीं होता है, इस में *. श्रीसिद्धसेनसूरि-श्रीयशोविजयव्यारव्ययोः 'सर्वद्रव्येष्व' इति पाठः, अन्यत्र तु न गृहीतं 'सर्व' पदम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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