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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् 'यो यत्कृते प्रत्यये न प्रतिभासते'.. [पृ. २६ पं० ३] इत्यादिप्रयोगे 'न प्रतिभासते च शाब्दे प्रत्यये स्वलक्षणं' इत्यसिद्धो हेतुः, स्वलक्षणप्रतिभासस्य शाब्दे प्रत्यये व्यवस्थापितत्वात् दूरव्यवस्थितपादपग्राह्यध्यक्ष प्रत्यय इवाऽस्पष्टप्रतिभासेऽपि । अत एव - [ ]
"अन्यदेवेन्द्रियग्राहमन्यच्छब्दस्य गोचरः । शब्दात् प्रत्येति मिनाक्षो न तु प्रत्यक्षमीक्षते ॥ अन्यथैवाग्रिसम्बन्धाद् दाहं दग्धोऽभिमन्यते । अन्यथा दाहशब्देन दाहार्थः सम्प्रतीयते ॥ तथा,
शब्देनाऽव्यापृताक्षस्य बुद्धावप्रतिभासनात् । अर्थस्य दृष्टाविव तदनिर्देशस्य वेदकम् ॥" इत्यादि शब्दबुद्धावस्पष्टप्रतिभासमुपलभ्य यदुच्यते परेण तनिरस्तम्, प्रत्यक्षबुद्धावप्यस्पष्टस्वलक्षणप्रतिभासस्य प्रतिपादितत्वात् । यत्र हि विशेषोपसर्जनसामान्यप्रतिभासो ज्ञाने तद् अस्पष्टं व्यवह्रियते, यत्र च सामान्योपसर्जनविशेषप्रतिभासः सामग्रीविशेषात् तत् स्पष्टमुच्यते । सामान्यविशेषात्मकत्वं च वस्तुनः प्रतिपादितम् प्रतिपादयिष्यते च यथावसरम् । तेन 'न चैकवस्तुनो रूपद्वयमस्ति, एकस्य द्वित्वविरोधात्' [२६-६] इत्याद्यसंगतमेव । वृक्षादि विषयक प्रत्यक्ष का विषय भी अस्पष्ट भासित होने से उन को भी अवस्तु मानना होगा । निष्कर्ष, सामान्य अवस्तुभूत नहीं है ।
★ स्वलक्षण शब्द वाच्य न होने का कथन मिथ्या ★ व्याख्याकार श्री अभयदेवसूरिजी महाराज अपने अंतर को खोल कर कहते हैं कि हमने जो यह नित्य सामान्यपक्ष के सिर पर थोपे गये दूषणों का परिहार किया वह तो सिर्फ अभ्युपगमवाद से किया है, वास्तव में हम किसी भी वस्तु को एकान्तत: नित्य या अनित्य नहीं मानते हैं किन्तु कथंचित् नित्यानित्य मानते हैं । यह अबाधितअनुभव से सिद्ध है कि बाह्य घटादि पदार्थ नये-पुराने इत्यादि बहुविध क्रमभाविपर्यायों से समवेत होता है, एक होता है, फिर भी सदृशपरिणाम और असदृशपरिणाम उभय से अभिन्न होता है । यह भी अबाधित अनुभवसिद्ध तथ्य है कि चेतना आदि आन्तरिक पदार्थ भी हर्ष-विषाद आदि विविध आवेगों से अभिन्न होता
इस पूरी चर्चा का सार यह है कि कोई, भी व्यक्ति एकान्तत: क्षणिक नहीं होती। कथंचित् स्थायी भाव भी होता है, अत: संकेतकाल और व्यवहारकाल दोनों में वह अनुवृत्त रह सकता है, इस के फलस्वरूप उस में संकेत भी सुतरां सम्भवित है, इस लिये संकेत में निरर्थकता की आपत्ति को अवकाश नहीं है। तब जो पहले क्षणिकवादी ने कहा था [पृ० पं०] कि-'शब्दसंकेत की प्रक्रिया न तो उत्पन्न स्वलक्षण में हो सकती है न अनुत्पन्न स्वलक्षण में, अतः स्वलक्षण शब्दवाच्य नहीं है' यह कथन मिथ्या करार दिया जाता है ।
★ स्पष्टास्पष्टप्रतीतिभेद से विषयभेद असिद्ध ★ अपोहवादीने जो पहले यह न्यायप्रयोग दिखाया था [पृ. पं०] कि यज्जन्य प्रतीति में जो भासित नहीं होता वह उसका विषय नहीं होता, शाब्दिक प्रतीति में स्वलक्षण भासता नहीं है... इत्यादि, इसमें 'स्वलक्षण का शाब्दिक प्रतीति में अप्रतिभास' यह हेतु पूर्वोक्त चर्चा से असिद्ध ठहरता है, क्योंकि शाब्दिक प्रतीति में स्वलक्षण का प्रतिभास होता है इस तथ्य को हमने सिद्ध कर दिखाया है । हाँ, शाब्दिक प्रतीति में स्वलक्षण
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