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________________ २२९ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ प्रत्यक्षात् । अभ्यस्तविषये तु चन्द्रग्रहणोपदेशादेनिश्चयादेव तृतीयादिप्रवृत्ताविवाध्यक्षात् क्वचिद् विसंवादात् शब्दस्य सर्वत्राप्रामाण्येऽध्यक्षस्यापि कचिद् विसंवादात् सर्वत्राप्रामाण्यप्रसक्तिः । न चास्पष्टावभासित्वात् भूतादेरवस्तुत्वम् अध्यक्षविषयस्यापि कस्यचित् तथाभावेनाऽवस्तुत्वप्रसक्तेः । तन सामान्यस्याऽवस्तुत्वम् । अभ्युपगमवादेन च नित्यसामान्यपक्षभाविदोषपरिहारः कृतः, परमार्थतस्तु नैकान्ततः किंचिद् वस्तु नित्यमनित्यं वा, बहिः नव-पुराणायनेकक्रमभाविपर्यायाक्रान्तस्य समानाऽसमानपरिणामात्मकस्यैकस्य घटादेः, अन्तश्च हर्ष-विषादायनेकविवर्त्तात्मकस्य चैतन्यस्याऽबाधितप्रतीतिविषयस्य व्यवस्थितत्वात् । तनैकान्ततः क्षणिकत्वं व्यक्तीनामिति संकेतव्यवहारकालव्यापकत्वस्य भावात् न तत्र शब्दसंकेताऽसम्भवः, नापि संकेतवैयर्थ्यम् । अत एव 'उत्पन्नाऽनुत्पन्नेषु स्वलक्षणेषु शब्दसंकेतस्याऽशक्यक्रियत्वात् स्वलक्षणस्याऽवाच्यत्वम्' इति यदुक्तं तद् निरस्तम् । [पृ. २३ पं० ५] उपलब्ध होता है। ★ अविसंवाद के विरह में भी संशय से प्रवृत्ति ★ यद्यपि 'श्रीहर्ष आदि राजा हो गये' अथवा 'शंख चक्रवर्ती होने वाला है' इत्यादि वाक्यों के समर्थन में कोई अविसंवाद उपलब्ध नहीं है, तथापि वहाँ सम्बन्ध का अभाव है ऐसा तो नहीं कह सकते क्योंकि ऐसे वाक्यों के उपदेशक को उन तथ्यों का दर्शन नहीं था' यह बात असिद्ध है । प्रश्न किया जाय कि- वैसा दर्शन था- यह बात भी कहाँ सिद्ध है ? तो उत्तर यह है कि सिद्ध न होने पर भी 'वैसा दर्शन उन उपदेशकों को शायद हो भी सकता है' ऐसा संशय तो किया जा सकता है । जब तक यह संशय है तब तक सम्बन्ध का अभाव तो सिद्ध नहीं हो सकेगा । जैसे, किसी भाव को प्रथम बार देखने के बाद प्रयोजन न होने से उस के लिये प्रवृत्ति न हुई, इसलिये वहाँ अविसंवाद उपलब्ध नहीं है, तथापि उस विषय का प्रत्यक्ष के साथ सम्बन्धाभाव तो सिद्ध नहीं हो सकता जब तक उस भाव का संशय वहाँ मौजूद हो। यह भी आपादन करना अनुचित है कि- एक स्थल में ('श्रीहर्षादि राजा हो गये' इत्यादि में) संशय होने पर प्रत्येक शब्द के बारे में भी संशय ही होता रहेगा - क्योंकि ऐसा आपादन प्रत्यक्ष में भी हो सकता है कि एक दूरस्थ स्थाणु आदि के बारे में संशय होने पर प्रत्येक प्रत्यक्ष में भी संशय ही होता रहेगा । यद्यपि यहाँ शब्दस्थल में सम्बन्ध का निश्चय नहीं लेकिन संशय रहेगा, फलत: निष्कंप प्रवृत्ति न होने पर भी शंकित (=सकम्प) प्रवृत्ति होने में कोई बाध नहीं है । जैसे कभी अनभ्यस्त दशा में वस्तु का प्रथम प्रत्यक्ष होने पर जब प्रथम बार प्रवृत्ति करते हैं तब वहाँ भी निष्कम्प नहीं किन्तु सकम्प प्रवृत्ति ही होती है । चन्द्र-सूर्यग्रहणादि सूचक उपदेश का विषय जब अभ्यस्त हो जाता है तब वहाँ उपदेश से संशय नहीं किन्तु निश्चय हो जाने से दृढ प्रवृत्ति ही होती है, जैसे पहले दो बार किसी प्रत्यक्ष विषय के बारे में प्रवृत्ति हो चुकी हो तब बाद में तृतीय-चतुर्थादि प्रत्यक्ष से जो उन के विषयों में प्रवृत्ति होती है वह निश्चयमूलक होने से दृढ ही होती है, डॉवाडोल नहीं । यदि कीसी वंचक का शब्द विसंवादी होने के कारण अप्रमाण माना जाय तो यह ठीक है किन्तु उस के उदाहरण से सभी शब्दों को अप्रमाण करार देना उचित नहीं है । अन्यथा द्विचन्द्रादि का दर्शनप्रत्यक्ष विसंवादी होने से अप्रमाण होता है इसलिये सभी प्रत्यक्ष अप्रमाण करार दिये जायेंगे- यह अतिप्रसंग होगा । ऐसा भी नहीं है कि- 'भूत-भावि भाव अस्पष्ट भासित होते हैं इसलिये उन्हें अवस्तुरूप माना जाय'- क्योंकि तब दूरस्थ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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