SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ २३३ पोहत्वम् ? तुच्छस्वरूपायाश्च व्यावृत्तेरन्यव्यावृत्तविकल्पाकारस्य चापोहत्वे सामान्य-सामानाधिकरण्यविशेषणविशेष्यभावादिव्यवहारश्च सर्व एवाऽघटमानकः । न च सामान्याभावात् सामान्यव्यवहारस्याऽघटमानत्वं न दोषायेति वक्तव्यम्, तत्सद्भावस्य प्रसाधितत्वात् । सामानाधिकरण्यव्यवहारश्च धर्मद्वययुक्तस्यैकस्य धर्मिणो बहिर्भूतस्याऽसद्भावादयुक्तः स्यात् । न च बाह्यार्थसंस्पर्शिविकल्पप्रतिबिम्बकेऽयं युक्तः । अथ धर्मद्वयानुरक्तैकधर्मिविकल्पेऽयमुपपत्स्यते । अयुक्तमेतत्, तथाभूतविकल्पाभ्युपगमे एकान्तवादिनामनेकाकारकविकल्पाभ्युपगमादनेकान्तवादप्रसक्तेः । न चाऽतात्त्विकमनेकत्वम् इति नायं दोषः, तथाऽभ्युपगमे ज्ञानात्मन्यविद्यमानस्यानेकत्वस्य स्वसंवेदनेनाऽपरिच्छेदप्रसक्तेः, वेदने वा स्वसंवेदनस्याप्रत्यक्षत्वप्रसंगः, अविद्यमानाकारग्राहित्वेन सदसतोरेकत्वाऽनेकत्वयोनितादात्म्यविरोधाद् अनात्मभूतं च वैचित्र्यं कथमतदाकारं ज्ञानवेदनं साकारज्ञानवादिनां में तो हमारा कोई विसंवाद नहीं है कि विजातीयव्यावृत्तपदार्थ के अनुभवद्वारा तथाविधपदार्थ को अध्यवसित करनेवाला शाब्दबोध विज्ञान उत्पन्न होता है । किन्तु वह अध्यवसाय ग्रहणात्मक होता है इस लिये उस ग्रहण के कर्मभूत विजातीय व्यावृत्त अर्थ को पारमार्थिकरूप से ग्राह्य भी मानना चाहिये । और हम यह सिद्ध कर चुके हैं कि विजातीयव्यावृत्ति वस्तु के समानपरिणतिरूप होने से वस्तु का ही पारमार्थिक धर्म है । इसलिये यदि उसे नामान्तर से 'अन्यापोह' संज्ञा दे कर उसको ही आप शब्दवाच्य घोषित करते हैं तो हमें इस में कोई आपत्ति नहीं है, आपके बौद्ध मत की परिभाषा के अनुसार संकेत करके आप उस समानपरिणति वस्तुधर्म के लिये 'अन्यापोह' शब्द का प्रयोग करे उसमें कोई विरोध नहीं है । यह जो पहले कहा था [पृ० ७७ पं० २९]- 'वह अर्थप्रतिबिम्ब शब्दजन्य होने से शब्द का कार्य है, शब्द उसका कारण है, इस प्रकार शब्द और अर्थप्रतिबिम्ब में जो कारण-कार्य भाव है वही वाच्य-वाचकभाव है' - यह निपट गलत है, क्योंकि संकेतविशेष की सहायता से शब्द के द्वारा अर्थप्रतिबिम्ब का बोध नहीं होता किन्तु बाह्य घट आदि अर्थ का बोध होता है इसलिये उसीको शब्दार्थ मानने में औचित्य है, विकल्पप्रतिबिम्ब को शब्दार्थ मानने में औचित्य नहीं है, क्योंकि शब्द से उस का वाच्यार्थरूप में बोध नहीं होता । हाँ, संकेतविशेष से सहकृत शब्द से विजातीयव्यावृत्त पारमार्थिक बाह्यार्थ के प्रतिबिम्ब को झेलनेवाला ज्ञान जन्म लेता है- इस बात में हमारा कोई विवाद नहीं है । *प्रतिबिम्बादिस्वरूप अपोह मानने में असंगति ★ पहले अपोहवादीने जो कहा था (पृ० ७८ पं० २०) 'प्रतिबिम्ब मुख्य अपोह है, विजातीयव्यावृत्तस्वलक्षण एवं विजातीयव्यावृत्ति ये दो औपचारिक अपोह है जो शब्दवाच्यार्थ कहे जाते हैं ।' यह असंगत बात है । जब आप वस्तुस्वरूप विजातीयव्यावृत्तस्वलक्षण को कैसे भी शब्दवाच्य घोषित करते हो तो इसका मतलब यह है कि अनन्तधर्मात्मक वस्तु के विशेषस्वरूप को गौण करके पारमार्थिक वस्तुरूप सामान्यधर्मसमुदाय को शब्दवाच्य बता रहे हैं । इस स्थिति में अन्यव्यावृत्तस्वलक्षण जो तुच्छव्यावृत्ति से सर्वथा विलक्षण है उसको उपचार से अपोह कहने का बीज क्या है ? कुछ नहीं । यदि आप तुच्छ स्वरूप व्यावृत्ति को अथवा अन्यव्यावृत्तविकल्पगत प्रतिबिम्बाकार स्वरूप अपोह को शब्दवाच्य कहेंगे तो सामान्यव्यवहार, सामानाधिकरण्य व्यवहार और विशेषण-विशेष्य भाव आदि व्यवहारों को कैसे भी असंगत नहीं कर पायेंगे । यदि कहें कि 'सामान्य कोई वस्तु ही नहीं है इसलिये उस के व्यवहार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy