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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् ज्ञानान्तरप्रत्यक्षज्ञानवादिनोऽपि स्वज्ञानानुपयोगेऽपि ज्ञानस्यार्थज्ञाने उपयोगसम्भवात् स्वज्ञानजननाऽसमर्थस्य ज्ञानस्यार्थज्ञानजनने सामर्थ्यासम्भवात् नैवार्थचिन्तनमुत्सीदेत् । ततोऽनर्थक्रियाकारिणोऽक्षणिकस्य यद्यवस्तुत्वेनाऽकार्यत्वम् चरमक्षणस्यापि तत् स्यात् सर्वथाऽनर्थक्रियाकारित्वात् । अथानर्थक्रियाकारिणोऽपि चरमक्षणस्य कार्यत्वम् न तहक्षणिके कृतकत्वं क्षणिकवादिना प्रतिक्षेप्तव्यम् न्यायस्य समानत्वात् ।।
संदिग्धव्यतिरेकश्च 'कृतकत्वाद्' इति हेतुः, विपक्षे बाधकप्रमाणाभावात् । व्यापकानुपलब्धिर्हि विपक्षे बाधकं प्रमाणम् तस्याश्च विपक्षे क्षणिकत्वलक्षणे प्रत्यक्षवृत्तिर्बाधकं प्रमाणम् । न च विपक्षे क्षणिकत्वे प्रत्यक्षवृत्तिः सिद्धा, क्षणक्षयात्मनि प्रत्यक्षनिश्चिते क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियोपलब्धेरनिश्चयात् । न चाऽक्षणिकस्याऽसत्त्वात् प्रकारान्तरस्य चाभावात् क्षणिकेप्वेवार्थक्रियोपलब्धिरिति वक्तुं शक्यम् अक्षणिकस्याका अविसंवादी अनुमान किया जाता है वह संदिग्धविसंवादी हो जायेगा, क्योंकि शब्दादि चरमक्षण जैसे सिर्फ विजातीय कार्य को ही उत्पन्न करता है वैसे ही रूपादि का अन्त्यक्षण सिर्फ रसादि विजातीय क्षण को ही उत्पन्न करे और सजातीय रूपादिक्षण को उत्पन्न न करे ऐसी सम्भावना की जा सकती है । इस स्थिति में फलादि में जब रसक्षण में रूपोत्पत्ति संदिग्ध है तब रस के द्वारा रूप का अनुमान संदिग्धव्यभिचारी बन जायेगा। यदि ऐसा कहें कि - 'रस और रूप की बीजादि सामग्री समान ही होती है अतः समानसामग्री अधीन युगल में से एक का जन्म हो और दूसरे का जन्म न हो यह नहीं बन सकता या तो दोनों का जन्म होगा, अथवा एक का भी नहीं होगा । अतः रस से रूप का अनुमान विसंवादी नहीं होगा ।' - तो शब्दादि चरमक्षण में भी यही बात समान है, शब्दादिचरमक्षण और योगविज्ञान ये दोनों भी समान कारणसामग्री जन्य होने से एक की अनुत्पत्ति में दूसरे की भी उत्पत्ति नहीं होगी।
★सजातीयअजनक में विजातीयजनकत्व दुर्घट★ बौद्ध का यह कथन भी ठीक नहीं है कि - ‘सजातीय के लिये अनुपयोगी चरमक्षण विजातीय कार्य के लिये उपयोगी बन सकता है।' - कारण यह है कि ज्ञान को स्वप्रकाश न मानने वाले वादी, जो ज्ञान को अनुव्यवसाय से वेद्य मानते हैं, उन के मत में ज्ञान अपने प्रकाश में उपयोगी न होने पर भी अर्थ का प्रकाश करने में उपयोगी माना जाता है । अब स्वप्रकाशज्ञानवादी बौद्ध इस का विरोध नहीं कर सकेगा, क्योंकि स्वप्रकाश के लिये अनुपयोगी ज्ञान भी अर्थप्रकाश करने के लिये समर्थ हो सकता है जैसे कि बौद्ध मत में उपरोक्त चरमक्षण । अत: ज्ञान परप्रकाश होने पर अर्थ का विचार ही उच्छिन्न हो जायेगा - ऐसा जो बौद्धवादी कहते हैं यह अर्थशून्य प्रलाप हो जायेगा ।
सारांश, अर्थक्रियाकारित्व न होने मात्र से ही यदि अक्षणिक को अवस्तु मान लेंगे तब तो चरम बीजली आदिक्षणों में भी, उपर कहे मुताबिक किसी भी प्रकार से अर्थक्रियाकारित्व सम्भव न होने से अवस्तुत्व प्रसक्त हो जायेगा । यदि अर्थक्रियाकारित्व के अभाव में भी आप चरमक्षण में कार्यत्व मान्य करेंगे तो अक्षणिक में अर्थक्रियाकारित्व का अभाव दिखाकर कृतकत्व का अपलाप करने की चेष्टा बौद्ध को नहीं करनी चाहिये, क्योंकि जिस न्याय से वह अक्षणिक भाव का खंडन करता है उसी न्याय से क्षणिकत्व का भी खंडन होता है, न्याय दोनों ओर समान है।
★कृतकत्व हेतु विपक्षव्यावृत्ति संदिग्ध ★ क्षणिकत्व की सिद्धि के लिये प्रयोजित 'कृतकत्व' हेतु संदिग्धव्यतिरेकी है, यानी विपक्ष में, अक्षणिक
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