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________________ द्वितीयः खण्डः - का० - २ द्याप्यभावाऽसिद्धेः । 'ब्यापकानुपलब्धेस्तदभावसिद्धि' श्वेत् ? न, विपक्षे प्रत्यक्षवृत्तौ व्यतिरेकसिद्ध्यानुपलब्धेरक्षणिकाभावगतिः तत्प्रतिपत्तौ च गत्यन्तराभावात् विपक्षे प्रत्यक्ष प्रवृत्तिरितीतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । अथाऽक्षणिकस्याsसत्त्वसाधने सत् (न्) विपक्षो भवति न क्षणिकः, सति च विपक्षेऽध्यक्षवृत्तिरस्त्येव । नैतत् सारम्, यतो द्वैराश्ये कोऽपरो भावः क्षणिकव्यतिरिक्तः सन् योऽक्षणिकाभावसाधने विपक्षः स्यात् ? गत्यन्तरसद्भावे वा कथं प्रकारान्तराभावाद् व्यापकानुपलब्धेरक्षणिकाद् व्यावर्त्तमानं सत्त्वमनित्यत्वं व्याप्नुयात् तदन्यस्यापि सत्त्वात् ? अथ क्षणिक एव भावः प्रतिक्षणमनुपलक्षितविनाशः सत्त्वमात्रेणोपलक्ष्यमाणो विपक्षः, क्रम-यौगपद्याभ्यमर्थक्रियोपलब्धिरस्तीति । ननु कथं क्षणिकत्वेन विपक्षस्याऽनिश्चये तंत्रैवार्थक्रियोपलब्धिर्नान्यत्रेत्यवसीयते तयोर्विशेषानुपलक्षणाद् अक्षणिकत्वप्रतीतेरुभयत्राऽविशेषात् ? 'पारिशेष्यादत्रैवार्थक्रि २१५ - में उस की वृत्तिता न होने का निश्चय नहीं है । कारण, विपक्ष में उस के रहने की सम्भावना को ध्वस्त करने वाला कोई बाधक प्रमाण नहीं है । व्यापक अनुपलब्धि ही विपक्ष में बाधक प्रमाण माना जाता है । अर्थात् अक्षणिक में अर्थक्रियाकारित्व रूप व्यापक की अनुपलब्धि से ही वहाँ कृतकत्व के रहने की सम्भावना ध्वस्त हो सकती है । लेकिन अर्थक्रियाकारित्व अक्षणिक में नहीं यह कैसे सिद्ध किया जाय ? वह तभी सिद्ध हो सकता है जब अक्षणिक के विपक्ष क्षणिकत्व की प्रत्यक्षप्रवृत्ति से सिद्धि हो । किन्तु विपक्षभूत क्षणिकत्व का साधक प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं है । कदाचित् उस को प्रत्यक्षनिश्चित मान लिया जाय तो भी उस में क्रम-यौगपद्य से अर्थक्रयाकारित्व की उपलब्धि का निश्चय करने के लिये कोई साधन नहीं है । यदि ऐसा कहें कि - 'अक्षणिक भाव तो असत् है, क्षणिक के अलावा और कोई भाव का प्रकार भी नहीं है, अर्थक्रिया रहेगी तो क्षणिकभाव विपक्षभूत क्षणिकभाव में प्रत्यक्ष में ही ' तो यह नहीं कह सकते क्योंकि यहाँ अन्योन्याश्रय दोष होगा तत्र की प्रवृत्ति पहले सिद्ध होनी चाहिये, तब अर्थक्रियाव्यतिरेक सिद्ध होने से उस की अनुपलब्धि से 'अक्षणिक भाव असत् है' यह सिद्ध होगा; दूसरी ओर अक्षणिक भाव असत् सिद्ध होने पर अन्य गति के अभाव में प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति क्षणिक में होने की सिद्धि हो सकेगी । बौद्ध : अक्षणिक के असत्त्व को सिद्ध करने की प्रक्रिया में क्षणिक को विपक्ष नहीं बनाते किन्तु 'सत्' को ही विपक्ष बनाते हैं, और वह तो प्रत्यक्षसिद्ध है । Jain Educationa International स्याद्वादी : यह कथन असार है, क्योंकि आपके मत में सत् पदार्थ के दो ही राशि सम्भवित है, क्षणिक और अक्षणिक । जब अक्षणिक को असत् सिद्ध करना है तब 'क्षणिक' को छोड कर और कौन सा 'सत्' है जो अक्षणिक का विपक्ष बने ? अतः 'सत्' के नाम से भी विपक्ष तो क्षणिक ही बनेगा, किन्तु वहाँ प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति असिद्ध है । यदि क्षणिक के अलावा भी कोई सत् हो जिस को आप अक्षणिक का विपक्ष बनाना चाहते हो, तब तो क्षणिक- अक्षणिक को छोड़ कर अन्य गति का भी सद्भाव सम्भवित बन गया, फिर कैसे कह सकेंगे कि 'अक्षणिक असत् है एवं क्षणिक के अलावा और कोई गति न होने से अर्थक्रिया क्षणिक में आ कर रहेगी' ? अब आप यह नहीं कह सकते कि 'अन्य प्रकार न होने से व्यापकानुपलब्धिरूप बाधक प्रमाण के बल पर अक्षणिक से निवृत्त होने वाला सत्त्व अनित्यत्व का व्याप्य बन जायेगा' क्योंकि क्षणिक अक्षणिक को छोड़ कर और भी आप सत् का प्रकार दिखा रहे हैं । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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