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द्वितीयः खण्डः-का०-२
२१३ च 'समानजातीयकार्याऽनारम्भेऽपि योगिविज्ञानलक्षणविजातीयकार्यक(का?)रणात् न सर्वथाऽनर्थक्रियाकारित्वं शब्दादिचरमक्षणानाम्' - सजातीयानुपयोगे विजातीयेऽपि तेषामनुपयोगात्, उपयोगे वा न रसादेरेककालस्य रूपादेरव्यभिचार्यनुमानं स्यात्, रूपादेरपि शब्दाद्यन्तक्षणवत् सजातीयकार्यानारम्भसम्भवात्, 'रूप-रसयोरेकसामग्यधीनत्वेन नियमेन कार्यद्वयारम्भकत्वेऽन्यत्रापि प्रसंगः, योगिविज्ञान-शब्दाधन्तक्षणयोरपि समानाकारणसामग्रीजन्यत्वात् । न चैकत्रानुपयोगिनश्चरमस्यान्यत्रोपयोगो युक्तः, अन्यथा अक्षणिक भाव में उत्तरोत्तरक्षणसापेक्ष क्रमश: अनेककार्यकारित्व क्यों नहीं घटेगा ? यदि ऐसा कहें कि - 'पूर्वोत्तर क्षणप्रबन्ध में यद्यपि क्षण क्षण पृथक् है फिर भी उन में जो एकत्व का अध्यवसाय होता है उस अध्यवसाय से उन क्षणों में (कल्पित) एकत्व को मान कर एक ही भाव (क्षणप्रबन्धात्मक) से क्रमश: अनेक कार्यकारित्व घटा सकते हैं - यह निपट असंगत है, क्योंकि पहले भी कहा है कि बौद्ध मत में अभेदाध्यवसाय की उपपत्ति नहीं होती, क्योंकि उस के लिये कोई निमित्त नहीं है । सादृश्य को यदि निमित्त मानेंगे तो दो विकल्प प्रश्नों का सामना करना होगा सर्वथा सादृश्य और कथंचित् सादृश्य । यदि सर्वथा पूर्वक्षण का उत्तरक्षण में सादृश्य मानेंगे तो उत्तरक्षण में पूर्वक्षण की तरह पूर्वकालीनत्व की प्रसक्ति होगी और उत्तरवर्ती समस्त क्षणप्रबन्ध में भी पूर्वकालीनता प्रसक्त होने से पूरा क्षणप्रबन्ध एककालीन हो बैठेगा, फिर उन में कारणकार्य भाव न रह पायेगा । यदि कथंचित् सादृश्य मानेंगे तो १- अनेकान्तवाद सिद्ध हो जायेगा, २ - नाम - आकृति - भाव आदि में भी कथंचित सादृश्य विद्यमान होने से उन में भी एकत्वाध्यवसाय के द्वारा एकत्व प्रसक्त होगा। इस प्रकार अभेदाध्यवसाय की बात में बहु दोष होने से, उस का अभाव सिद्ध होने पर, पहले जो अनेकक्षणों से उत्तरोत्तरक्षण की क्रमश: उत्पत्ति को लेकर क्रमकारित्व को घटाने में जो अतिप्रसंग दिखाया है वह तदवस्थ ही रहता है ।
इस प्रकार क्षणिक भाव में क्रमश: अथवा एक साथ अर्थक्रिया का विरोध सिद्ध होने पर, अर्थक्रियाकारित स्वरूप सत्त्व से विशिष्ट जो कृतकत्व है वह भी क्षणिकभाव से निवृत्त होगा, फिर उस को रहने के लिये और कोई स्थान न मिलने पर वह अक्षणिक में ही जा बैठेगा, फलतः कृतकत्व से क्षणिकत्वविरोधी अक्षणिकत्व की सिद्धि होने पर कृतकत्व हेतु साध्य-विपर्यय (अक्षणिकत्व) का साधक होने से विरुद्ध हेत्वाभास प्रसिद्ध होता
★ कृतकत्व हेतु में अनैकान्तिकत्व दोष * कृतकत्व हेतु विरुद्ध उपरांत अनैकान्तिक भी है क्योंकि क्रम से अथवा एक साथ जो अर्थक्रियाकारी नहीं होते उन में भी कार्यत्व (= कृतकत्व) होने का सम्भव है । देखिए - शब्द, बीजली, दीपक इत्यादि भावों का चरम क्षणों का अन्य उत्तरवर्ती क्षणों के उत्पादन में उपयोग न होने पर भी न तो वे अवस्तु हैं, न तो अकार्य हैं । यदि उन चरमक्षणों को वस्तुभूत नहीं मानेंगे तो द्विचरमादि क्षणों में भी अर्थक्रियाअभाव के कारण अवस्तुत्व प्रसक्त होगा । यदि यह कहा जाय - 'समानजातीय कार्य का उत्पादन न करने पर भी योगियों को उस का ज्ञान उत्पन्न होता है, उस ज्ञानस्वरूप विजातीय कार्य का उत्पादन करते हैं इसलिये उन शब्दादि के चरमक्षण में अर्थक्रियाकारित्व का सर्वथा अभाव नहीं है' - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जो सजातीय कार्य के लिये अनुपयोगी हो वह विजातीय कार्य के लिये उपयोगी नहीं बन सकता । सजातीय के लिये अनुपयोगी होने पर भी यदि विजातीय के लिये उपयोगी मानना चाहेंगे तो नतीजा यह होगा कि रसादि से जो रूपादि
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