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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् असम्यगेतत्, असम्बन्धवत् सम्बन्धप्रकारान्तरस्यैवाऽदृष्टस्यापि कल्पनाप्रसक्तः । 'सर्वात्मनैकदेशेन वाऽ.
नामसम्बन्धात्, सम्बन्धस्य प्रतीतेः प्रकारान्तरेण एषां सम्बन्धः' इति कल्पना युक्तियुक्तैव, प्रतीतिविरोधश्चैवं न स्यात् ।
अथ विकल्पिका प्रतीतिरारोपितगोचराऽसत्यपि सम्बन्धे सम्बन्धमादर्शयति, न तद्वशात् सम्बन्धव्यवस्था येन प्रतीतिविरोधः स्यादसम्बन्धवादिनः । कथं तर्हि सम्बन्धप्रतीतेवैशयम् विकल्पस्य वैशयानिष्टेः ? 'युगपद्वृत्तेर्विकल्पाऽविकल्पयोरेकत्वाध्यवसायाद् वैशयभ्रमे' - सहभाविनोर्गोदर्शनाश्वविकल्पयोरप्येकत्वाध्यवसायाद् वैशयविभ्रमः स्यात् । अथाऽसम्बद्धैरपि परमाणुभिः सम्बन्धग्राहीन्द्रियज्ञानं तज्जन्यते ततोऽयमदोषः । नन्वेवमसम्बद्धानपि परमाणुन् सम्बद्धानिवाध्यक्षबुद्धिरधिगच्छन्ती कथं भ्रान्ता प्रत्यक्षत्वमश्नुवीत ? प्रत्यक्षत्वे वा कथमतो न परमाणुसम्बन्धसिद्धिः यतोऽसम्बन्धवादिनः प्रतीतिविरोधो न स्यात् ? हैं या अनात्मभूत ? यदि आत्मभूत हैं तब तो परमाणुरूप ही हैं। अत: एक अंश रूप न होने से, आंशिक सम्बन्ध को अवकाश ही नहीं है। यदि वे एक एक अंश अनात्मभूत हैं तब पुनरावर्तन से वही बात आयेगी कि उन एक-एक अंशों का परमाणुओं के साथ पहले तो सम्बन्ध घटाना होगा, वह सर्वात्मना मानेंगे तो अभेद प्रसक्त होने से एकदेशरूप सम्बन्धी ही लुप्त हो जायेगा तो उस के साथ सम्बन्ध भी लुप्त हो ही जायेगा।
और एक एक अंशों के तो कोई उपांश है नहीं जिस से कि उन का भी एक अंश से सम्बन्ध बन सके । यदि कहें कि परमाण के साथ (अनात्मभत) उन एक एक अंशों का भी अपने उपांशो से । मानेंगे - तो वे ही दो विकल्प आयेंगे कि वे उपांश उन अंशों से अभिन्न है या भिन्न भिन्न है तो स पर्वात्मना सम्बन्ध होगा या उन के भी एक एक अंश से ?....... इत्यादि प्रश्न ज्यों का त्यों रहेगा - उन का कहीं भी अन्त नहीं आयेगा । सर्वात्मना और एक देश को छोड कर और तो कोई प्रकार है नहीं जिस से कि परमाणुओं का सम्बन्ध बनाया जा सके । फलत: प्रतीत होने वाले सम्बन्ध का त्याग कर के प्रतीत न होने वाले भी असम्बन्ध की कल्पना करनी पडेगी ।
स्याद्वादी : यह सच्चा तरीका नहीं है, सर्वात्मना और एक देश से सम्बन्ध के न घटने पर, जैसे आप असम्बन्ध की कल्पना को स्थान देते हैं, वैसे ही उन दोनों से भिन्न प्रकार के भी सम्बन्ध होने की कल्पना स्थानोचित है । और इन दोनों में प्रकारान्तर से सम्बन्ध की कल्पना ही युक्तियुक्त हैं क्योंकि कल्पित असम्बन्ध प्रतीत नहीं है जब कि सर्वात्मना, एक देश इन दो प्रकार से अणुओं का सम्बन्ध न घटने पर भी सम्बन्ध की प्रतीति होती है अत: तीसरा भी कोई प्रकार होना चाहिये जिस से अणुओं के सम्बन्ध की प्रतीति संगत की जा सके । इस तरह कोई प्रतीतिविरोध नहीं होगा।
★सम्बन्धप्रतीति आरोपितगोचर, शंका का निरसन★ बौद्धवादी : सम्बन्ध की प्रतीति होती है यह ठीक बात है लेकिन वह विकल्पात्मक होने से आरोपितगोचर होती है जो सम्बन्ध के न होने पर भी आरोपित असत् सम्बन्ध का दर्शन कराती है । आरोपित प्रतीति के बल से कहीं भी पदार्थव्यवस्था नहीं होती अत एव सम्बन्ध की व्यवस्था उस से नहीं होती । तब असम्बन्धवादी के मत में मिथ्याप्रतीति का विरोध बताना कैसे उचित कहा जाय !
स्यावादी : सम्बन्ध प्रतीति यदि विकल्पात्मक है तो वह इतनी विशद (स्पष्टता से अवगुण्ठित) कैसे
सम्बन्ध
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