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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ २०५ परमाणूनामसम्बद्धानां जलधारणाद्यर्थक्रियाकारित्वानुपपत्तेः अर्थक्रियाविरोधश्चाऽसम्बन्धवादिनः । वंशादीनां चैकदेशाकर्षणे तदपरदेशाकर्षणं च न स्यात्, वर्तमानविज्ञप्तिक्षणवत् पूर्वापरक्षणयोगेऽपि वा न स्वभावभेदः । अभावाऽव्यवधानलक्षणं हि नैरन्तर्यम् तल्लक्षणश्च सम्बन्धः परेणाभ्युपगन्तव्य एव तस्याभावे कार्योत्पत्तिरहेतुका स्यात् अनवरतसत्त्वोपलम्भेनाऽभेदभ्रान्तिश्च स्यात्, केवलादेव सादृश्याद् भ्रान्तेरुत्पत्तावतिप्रसंगः सर्वत्र सादृश्याद् तदुत्पत्तिप्रसक्तेः । सत्त्वोपलम्भवाभावाऽव्यवधानलक्षणमेव नैरन्तर्यम् तस्याऽस्तित्वे तल्लक्षणोऽस्त्येव सम्बन्धः । न चानेकाकारयोगेऽपि पीतायनेकाकारचित्रज्ञानवदेकान्ततो भेदः पदार्थस्य, प्रतीयमानेऽभेदे एकान्तभेदानुपपत्तेः । अतः क्षणिकस्वभावापेक्षाऽक्षणिकभावसम्भवात् सम्भविनी भावानाम् । होती है ? आप के मत में तो प्रत्यक्ष विशद होता है न कि विकल्प । बौद्धवादी : जिस समय सम्बन्ध का विकल्पज्ञान होता है उसी समय जो निर्विकल्प ज्ञान उत्पन्न होता है उन दोनों में एकत्व का अध्यवसाय हो जाता है, इस एकत्वाध्यवसाय के कारण निर्विकल्प प्रत्यक्षगत वैशद्य का विकल्प में भ्रम होता है, इस तरह विकल्प भी विशदरूपसे अनुभूत होता है । स्याद्वादी : अगर ऐसा है तब तो जिस समय अश्व का विकल्प ज्ञान उत्पन्न होता है उसी समय गाय का दर्शन प्रत्यक्ष हो रहा है । अब यदि एक साथ उत्पत्ति को आप एकत्वाध्यवसाय का निमित्त बताते हैं तब यहाँ भी एकत्वाध्यवसाय होगा और उस के कारण अश्वविकल्प में भी वैशद्य का भ्रम होना चाहिये - क्यों नहीं होता है ? बौद्धवादी : परमाणु तो पहले कहा है कि असम्बद्ध ही होते हैं फिर भी इन्द्रिय से सम्बद्धग्राहक (प्रत्यक्ष) ज्ञान कैसे भी हो जाता है - इस प्रकार असम्बन्ध और प्रतीति, दोनों मानने में कोई दोष नहीं । स्याद्वादी : अरे ! ऐसे तो असम्बद्ध परमाणुओं सम्बद्ध जैसे ग्रहण करनेवाली प्रत्यक्षबुद्धि भ्रान्त ही कही जायेगी । आपके मत में तो इन्द्रियजन्य हो वह प्रत्यक्ष होता है और प्रत्यक्ष सर्वदा अभ्रान्त होता है । अब यहाँ जो भ्रान्त बुद्धि हुई है वह कैसे प्रत्यक्ष कही जायेगी ? यदि वह प्रत्यक्ष है तो भ्रान्त नहीं कही जायेगी, फलतः उसी सम्बन्धग्राहक प्रत्यक्ष प्रमाण से सम्बन्ध की भी सिद्धि हो जायेगी। तब असम्बन्धवादी के मत में प्रतीतिविरोध कैसे मिटेगा ? *असम्बन्धवाद में अर्थक्रियाविरोध* ___ असम्बन्धवादी को ओर भी एक दोष है - परमाणुओं के बीच जब कोई सम्बन्ध नहीं है तब घट जैसा कोई अवयवी भी न होने से केवल परमाणु से जलधारण आदि अर्थक्रिया भी नहीं होगी, फलत: अर्थक्रिया का विरोध प्रसक्त होगा । उपरांत, परमाणुओं के बीच सम्बन्ध न होने पर लम्बे लम्बे वंश-रज्जु आदि को एक भाग से खिंचने पर उन के जो दूसरे भागों का आकर्षण होता है वह नहीं हो सकेगा । अथवा तो क्षणिकवादी जो कि पूर्वापर क्षणों में भिन्न भिन्न काल सम्बन्ध से भिन्न भिन्न स्वभाव का आपादन कर के वस्तुभेद सिद्ध करना चाहता है उस को परमाणु के सम्बन्ध की बात छोड कर यह भी कह सकते हैं कि - जैसे वर्तमान ज्ञानक्षण में पूर्व-उत्तरक्षण का सम्बन्ध तो अवश्य होता है फिर भी वहाँ न तो स्वभावभेद प्रसक्त है और न उस एक क्षण के टुकडे । ऐसे अक्षणिक वस्तु में अनेक काल सम्बन्ध होने पर भी स्वभावभेद को न होने * पूर्वमुद्रिते तु 'परार्थस्य' इति पाठ: स चाऽसंगतः । ‘पदार्थस्य' इति लिम्बडी० आदर्श । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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