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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
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द्वितीयादिक्षणेऽपि प्रथमक्षणस्वभावस्य भावे तस्वभावत्वेऽप्येकान्ततः क्षणिकत्वाऽसम्भवात् । अथाभूत्वा भावश्च प्रागसतः सत्त्वम् तस्य द्वितीयेऽपि क्षणे भावान पूर्वापरक्षणयोः स्थित्युत्पत्तिमत्त्वेन स्वभावभेदात् भावस्य क्षणिकत्वम् । नाप्यपरापरकालसम्बन्धोऽप्यपरापरस्वभावो भवति परमाणुषट्कसम्बन्धेऽप्येकपरमाणुवत् ।
'परमाणूनामयःशलाकाकल्पत्वात् परस्परमसम्बन्धः' इति चेत् ? असदेतत् - सम्बन्धे प्रतीयमाने असम्बन्धकल्पनाऽयोगात् । - "कृत्स्नैकदेशसम्बन्धविकल्पायोगादसम्बन्धः । तथाहि - सर्वात्मना परमाणूनामभिसम्बन्धेऽणुमात्रं पिण्डः स्यात् । एकदेशेनाभिसम्बन्धे त एकदेशाः परमाण्वात्मनः आत्मभूता, परभूता वा ? आत्मभूताश्चेत् नैकदेशेनाभिसम्बन्धः तेषामभावात् । परभूताश्चेत् परमाणुभिरेकदेशानां सर्वात्मनाभिसम्बन्धेऽभेदादेकदेशैकदेशिनोरेकदेशाभावात् नैकदेशेनाभिसम्बन्धः परमाणूनाम् । 'एकदेशेनैकदेशानामेकदेशिनाभिसम्बन्धः' चेत् तदेकदेशानां ततो भेदाभेदकल्पनायां तदवस्थः पर्यनुयोगोऽनवस्था च । न च प्रकारान्तरं दृष्टं येनाणूनां सम्बन्धः स्यात्, अतोऽनुपलभ्यमानस्यापि परमाण्वसम्बन्धस्य कल्पना"माना गया है । इस प्रकार के स्वभाववाला भाव द्वितीयादिक्षणों में भी होने से स्वभावभेदमूलक क्षणिकत्व को अवकाश नहीं है क्योंकि अक्षणिकत्व मानने में कोई विरोध नहीं है । यदि ऐसा स्वभाव माना जाय कि 'वर्तमान क्षण के पूर्वक्षणों में न रह कर (अब) रहना' - तो भी एकान्त क्षणिकत्व तो हो नहीं सकता क्योंकि पूर्वक्षणों में न रह कर उत्तरोत्तर क्षण में अनुवृत्त रहने का प्रथमक्षणकालीन स्वभाव द्वितीयादि क्षणों में भी अक्षुण्ण है। यदि 'अभूत्वा भवन' का यह तात्पर्य है 'पहले असत् हो कर (अब) सत् होना' तो यहाँ भी स्थिति-उत्पत्तिभेदमूलक क्षणिकत्व को अवकाश नहीं है क्योंकि वैसा स्वभाव द्वितीयादि क्षणों में अनुगत है । [यहाँ संस्कृत व्याख्या में कई जगह अनेक अशुद्ध पाठान्तर हैं अत: शुद्ध पाठ अन्वेषणीय है ।]
अन्य अन्य काल का सम्बन्ध यह कोई अन्य अन्य स्वभावात्मक नहीं है, वस्तु एकस्वभाव होने पर भी उस में अलग अलग क्षणों का सम्बन्ध उसी तरह हो सकता है, जैसे एक परमाणु में विभिन्न छह दिशाओं में रहे हुए परमाणुओं का संयोग होता है, वहाँ परमाणु का षट्खण्ड भेद नहीं माना जाता तो क्षणभेद से भेद क्यों माना जाय ?
★ परमाणुवों के असम्बन्ध की कल्पना का निरसन ★ बौद्धवादी : जैसे लोह की अनेक शलाका दूर से सम्बद्ध दीखती है लेकिन परस्पर असम्बद्ध होती हैं ऐसे ही परमाणु परस्पर सम्बद्ध होने की अनुमिति भले होती हो, किन्तु वे असम्बद्ध ही होते हैं ।
स्याद्वादी : यह गलत बात है हेतुप्रभव अनुमिति से (अथवा सर्वज्ञ को साक्षात् अथवा बहु परमाणुपुञ्ज का दूसरे परमाणुपुञ्ज से साक्षात्) जब सम्बन्ध की प्रतीति हो रही हो तब असम्बन्ध की कल्पना को अवकाश नहीं रहता।
__ बौद्धवादी : असम्बन्ध की कल्पना को अवकाश इस प्रकार है, एक परमाणु दूसरे परमाणु के साथ सर्वात्मना (=सर्वांश से) सम्बद्ध होता है या एक अंश से - इन दोनों में से एक भी विकल्प घटता नहीं है, इस लिये असम्बन्ध की कल्पना की जा सकती है । देखिये - परमाणु के साथ परमाणु का यदि सर्वात्मना सम्बन्ध मानेंगे तो सभी परमाणुपिण्ड एक ही परमाणु में समाविष्ट हो जाने से पिण्डमात्र अणुपरिमाण हो जायेगा । यदि एक अंश से सम्बन्ध होने का मानेंगे तो ये दो विकल्प प्रश्न खडे होंगे - वे एक-एक अंश परमाणु के आत्मभूत
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