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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् न जन्म तथापि जन्म-जन्मिनोः स्थिति-स्थितिमतोश्वाऽभेदात् तयोश्च व्यतिरेकात् प्रतिक्षणमनवस्थायित्वम् । अपरापरकालसम्बन्धित्वस्य परस्परव्यतिरेकिणो भावस्वभावत्वाच्च प्रतिक्षणमनवस्थायित्वमिति सिद्धा विनाशं प्रत्यनपेक्षा भावस्य ।
असदेतत् - स्वहेतोरेवानेकक्षणस्थायी भावो भूतक्षणेष्वभवन् तिष्ठन् वर्तमानक्षणेषु, भविष्यत्क्षणेषु स्थास्यंश्चान्त्यपश्चिमे प्रथमक्षण एव जात इति कालेनाऽनागतादिनाऽसताऽपि विशेष्यत्वं भावस्याऽविरुद्धं कारणसामर्थ्यवत् द्वितीयक्षणेन - अन्यथा कार्यकारणयोरेकदैवोत्पत्तेरेकक्षणस्थायि जगत् स्यात्-इति । प्रागुत्पत्तेरभूत्वा भावेऽपि भावस्य द्वितीयादिक्षणे न क्षणिकत्वम्, वस्तुतस्तु भावक्षणात् पूर्वक्षणेषु भूत्वा भावी स्वभावो भावस्य सर्वत्र नान्त्यक्षणेनापि विशिष्टोऽनन्तरातीतक्षण एव प्रथमक्षणे(णः) तादृशस्वभावस्य भावे द्वितीयादिक्षणेऽपि न क्षणिकत्वम्, अक्षणिकत्वाऽविरोधात् भावक्षणात् पूर्वक्षणेष्वभूत्वा भावस्य स्वभावभेद प्रसक्त होने से पुनः प्रतिक्षण अनवस्थायित्व आ जायेगा ।
सारांश, हर एक स्थिति में, भावमात्र का आखिर निर्हेतुक विनाश दूसरे क्षण में प्रसक्त होता है इस से विनाश की निरपेक्षता सिद्ध हो जाती है जो बाण आदि में भी प्रसक्त होगी ही ।
★ बौद्ध की क्षणिकत्वसाधक युक्तिओं का प्रत्युत्तर ★ स्याद्वादी : बौद्धों का यह विस्तृत कथन गलत है । पदार्थ अपने हेतुओं से ही अनेकक्षणस्थायी उत्पन्न होता है, उस का स्वभाव ऐसा ही होता है - भतकालीन क्षणों में रह चका है. वर्तमानक्षण में रहता है और भावि क्षणों में रहने वाला है । जब वह उत्पन्न होता है तब पूर्वसन्तान के अन्त्यक्षण की पश्चिम-उत्तरवर्ती प्रथम क्षण में वैसा स्वभाव लेकर ही वह उत्पन्न होता है । अनागत काल और भूतकाल यद्यपि असत् है फिर भी प्रत्येक क्षण में जब वस्तु को त्रिकालस्थायी मानते हैं तब असत् काल से वह विशिष्ट बना रहता है, उस में कोई विरोध नहीं है । अन्यत्र भी ऐसा देखा जाता है, कारण में भावि कार्योत्पादक सामर्थ्य होता है तब द्वितीयादिक्षण भावि कार्य तो असत् होता है फिर भी कारणगत सामर्थ्य भाविकार्य से विशिष्ट रहता है । यदि कारणसामर्थ्य में भाविकार्यवैशिष्ट्य नहीं मानेंगे तो भावि कार्य, विना कारणव्यापार ही उत्पन्न हो जायेंगे, उस स्थिति में कहीं भी कारण-कार्य भाव भी देखने को नहीं मिलेगा, फलत: कारण-कार्य रूप से माने गये सब पदार्थ एक साथ उत्पन्न एवं नष्ट भी हो जायेंगे और पूरा जगत् एक क्षण स्थायि हो जायेगा।
अदृश्य कार्यों में जो 'प्रागभूत्वा भवन' स्वभाव से क्षणिकता को खिंच लाये हैं वह भी ठीक नहीं क्यों कि प्राग् का मतलब है 'उत्पत्ति के पूर्व' । उत्पन्न के प्रथम क्षण में जैसे 'उत्पत्ति के पूर्व न रह कर अब रहने' का स्वभाव है वैसे ही द्वितीयादिक्षणों में भी 'उत्पत्ति के पूर्व न रहने' का स्वभाव यथावत् ही है अत: स्वभावभेद से क्षणिकता की बात को अवकाश कहाँ है ? !
___वास्तव में तो हम 'प्रागभूत्वा भवन' स्वभाव को नहीं मानते हैं किन्तु स्याद्वाद की दृष्टि से, 'वर्तमान क्षणों के भूतपूर्व क्षणों में रह कर भावि क्षणों में भी रहेगा' ऐसा स्वभाव मानते हैं । सर्वत्र पदार्थ अनादि क्षणों से विशिष्ट होता है इस लिये जब भी विवक्षा हो तब उस का अव्यवहित क्षण ही आद्यक्षण * अत्र पूर्वमुद्रिते "द्वितीयेऽपि क्षणे न इत्येवं पाठोऽशुद्धः, लिम्बडीसत्कहस्तादर्शे तु 'द्वितीयक्षणेन' इति पाठान्तरम् तच संगतम् । .'नान्त्य' स्थाने 'नाथ' इति लिं-प्रतौ ।
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