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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ १९९ न्धादुपपद्यत एव । स्यादेतत् यदि तथाभूतं स्वलक्षणं प्रत्यक्षत एव सिद्धं स्यात्, न च तत् ततः सिद्धम् स्वप्नेऽपि निरंशक्षणिकानेकपरमाणुरूपस्य तस्यासंवेदनात् । यादृग्रूपं तु तत् प्रत्यक्ष प्रतिभाति कृतकत्वायनेकधर्माध्यासितं तन निरंशम्, यतस्तदनुभवद्वारायातकृतकत्वादिविकल्पप्रतिभासिनां धर्माणामव्यभिचारात् साध्यसाधनभाव उपपद्येत । न चानुमानविकल्पत एव तस्य तथासिद्धिः प्रतिबन्धाऽसिद्धावनुमानस्यैवाऽप्रवृत्तेः । सविकल्पकप्रत्यक्षस्य साध्यसाधनधर्मप्रतिबन्धग्राहकस्य धर्मिस्वरूपग्राहकस्य च प्रामाण्याभ्युपगमे शब्दादिधर्मिणः कृतकत्वायनेकधर्मात्मकस्य सिद्धत्वाद् विवादाभाव एव । भवतु वा परपक्षे साध्यसाधनभेदः तथापि न साध्यसाधनभावः तयोरविनाभावसाधकप्रमाणाभावात् । तो साध्य-साधनभाव बन नहीं सकता; और जो भिन्नरूप से अध्यवसित निश्चयगत कृतकत्व और अनित्यत्व है वे तो विकल्पबुद्धिप्रतिबिम्बित होने से सर्वथा भिन्न हैं, उन में तादात्म्यलेश भी नहीं है तो उन में कैसे साध्य साधनभाव बन सकेगा ? जो बुद्धिकल्पित विषय होता है वह अवस्तुरूप होने से उन में कोई सम्बन्ध नहीं होता। ___ अब यदि ऐसा कहें कि - "निश्चय से अध्यवसित जो स्वलक्षण वस्तु है [जो कि सामान्यरूप से नाम-जात्यादि योजित है] वह तो वास्तविक है, निश्चय से जो उसमें भेद प्रतीत होता है वही कल्पनानिर्मित है, क्योंकि शब्दात्मक स्वलक्षण का अकृतकव्यावृत्त होना, नित्यव्यावृत्त होना, निरंश होना, एक अखंड होना यह तो सब वास्तविक स्वभाव रूप है। एवं विकल्पबुद्धि भी परम्परया उक्त स्वरूप स्वलक्षण से प्रतिबद्ध ही होती है। अत: स्वलक्षणगत कृतकत्वादि धर्मों का भिन्नरूप से अध्यवसाय करनेवाले जो कृतकत्वादिग्राहि विकल्प हैं वे उक्तस्वरूप स्वलक्षण के अनुभव द्वारा उत्पन्न होने के कारण उस से प्रतिबद्ध ही हैं । अत: उनमें भिन्न रूप से भासित होने वाले धर्मों में साध्य-साधन भाव मानने में कोई बाध या व्यभिचार नहीं है, क्योंकि परम्परया वहाँ वस्तु के साथ वास्तव सम्बन्ध है।" किन्तु यह तो तब हो सकता है अगर और किसी प्रत्यक्ष प्रमाण से स्वलक्षण के उक्तस्वरूप की सिद्धि हो चुकी हो । सिद्धि तो हुई नहीं, स्वप्न में भी शब्दस्वलक्षण के निरंश, क्षणिक, अनेकपरमाणुपुञ्ज स्वरूप का संवेदन नहीं होता तो जागृति में तो बात ही कहाँ ? प्रत्यक्ष में कृतकत्वादिअनेकधर्माध्यासित जिस स्वलक्षण का भान होता है वह निरंशरूप से नहीं किन्तु स्थायि एवं अनेक अंशों के समुदायरूप से ही अनुभूत होता है। इस प्रकार के अनुभव के बल पर जो कृतकत्व, स्थायित्व, स्थूल समुदाय आदि धर्मों को अध्यवसित करने वाले विकल्प उत्पन्न होंगे उन में व्यभिचार न होने से, परम्परया अनुभव के विषयभूत स्वलक्षण से सम्बद्ध होने से उनमें साध्य-साधन भाव हो सकता है, अनित्यत्व और निरंशत्व के साथ वह कैसे होगा ? यदि कहा जाय कि 'अनुमानात्मक विकल्प से ही निरंशता, अनित्यता की सिद्धि होगी' तो यह दूर है क्योंकि अनित्यत्व के साथ जब व्यापक-व्याप्य भाव स्वरूप प्रतिबन्ध ही सिद्ध नहीं है तो अनित्यता के साधक अनुमान की प्रवृत्ति ही कैसे होगी ? यदि आप सविकल्प प्रत्यक्ष से हमारी तरह ही साध्यसाधन की व्याप्ति का ग्रहण एवं धर्मिस्वरूप का भी ग्रहण भी मानते हो और सविकल्प प्रत्यक्ष को प्रमाणभूत मानते हो तब तो विवाद ही नहीं रहता क्योंकि शब्दादि धर्मी कृतकत्व, क्षणभंगुरत्वादि धर्मों से अवगुंठित स्वरूपवाला सिद्ध ही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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