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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
“नाप्यारोप्यभेदाद् व्यवच्छेदस्य भेदः, सत्त्वादावसत्त्वायारोपस्याभावात् भावे वा सत्त्वमप्यनित्यत्ववत् साध्यमनुषज्येत । तत्साधने च तद्धेतोरसिद्ध - विरुद्धानैकान्तिकदोषत्रयानतिवृत्तिर्भवदभिप्रायेण । तन कृतकत्वाऽनित्यत्वयोः साध्यसाधनभावः भवदभिप्रायेण भेदाभावात् ।
अथ तयोः परमार्थतोऽभेदेऽपि निश्चयवशाद् गम्यगमकभावः इति कृतकत्वं कृतकत्वाध्यवसायिना निश्चयप्रत्ययेन भेदेन निश्चीयमानमनित्यत्वस्य गमकम् । ननु ययोर्वस्तुगतयोः कृतकत्वाऽनित्यत्वयोस्तादात्म्यप्रतिबन्धः न तयोर्निश्चय इति न गम्यगमकभावः, बुद्ध्यारूढयोरवस्तुत्वेन प्रतिबन्धाभावात् ।
अथ भेद एव तयोः कल्पनानिर्मितः न पुनर्वस्तुस्वरूपमपि शब्दस्वलक्षणस्याकृतकनित्यव्यावृत्तनिरंशैकस्वभावत्वात्तद्गतकृतकत्वादिभिन्नधर्माद्यध्यवसायिनश्च कृतकत्वादिविकल्पास्तथाभूतस्वलक्षणानुभवद्वारायातत्वेन तत्प्रतिबद्धास्तेन तत्प्रतिभासिनोर्धर्मयोः साध्यसाधनभावः अव्यभिचारश्च पारम्पर्येण वस्तुप्रतिबहै क्योंकि 'शब्द धर्मी और शब्दत्व धर्म' ऐसी व्यवस्था प्रतिभासभेद के विना लुप्त हो जायेगी । यदि ऐसा कहें कि ' शब्द और शब्दत्व में प्रतिभासभेद जरूर है लेकिन व्यवच्छेद्य का भेद न होने से दोनों एक ही है अतः शब्दत्व हेतु में प्रतिज्ञार्थएकदेशता जरूर प्रसक्त होगी ।' अरे, तब तो भाववाचक शब्दत्वपद और द्रव्यवाचक शब्द पद इन दोनों में पर्यायभेद होने पर भी अब तो वह लुप्त हो कर पर्यायवाची बन जायेंगे क्योंकि 'शब्द' पद भी शब्दत्व का वाचक हो गया । यदि पर्यायभेद रखना है तब शब्द - शब्दत्व में भेद मानना पडेगा, किन्तु तब प्रतिज्ञार्थ - एकदेशता नहीं होगी ।
आरोपभेद से व्यवच्छेद्य का यानी कृतकत्व और अनित्यत्व का भेद मानेंगे तो वह भी सम्भव नहीं है । कारण, सत्त्वादि में असत्त्व का आरोप होता नहीं है । यदि असत्त्व का भी आरोप मानेंगे तो 'यत् सत् तत् क्षणिकं' इत्यादि अनुमान में सब से पहले सत्त्व को ही सिद्ध करने के लिये दूसरा अनुमान करना होगा, जिस हेतु से आप सत्त्व की सिद्धि करना चाहेंगे उस हेतु में आप के मतानुसार असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक ये तीनों दोष का प्रवेश होगा । वह इस प्रकार, जिस हेतु से सत्त्व की सिद्धि करना चाहेंगे वह हेतु भी 'सत्त्व असिद्ध होने तक सिद्ध न होने से' असिद्ध रहेगा, क्योंकि सत्त्व के विना अन्य धर्म हो नहीं सकते । यदि वहाँ हेतु का भी आरोप मानेंगे तो अनैकान्तिक दोष होगा, क्योंकि आरोपित हेतु सत्त्व के विपक्ष असत् में भी रह सकता है । तथा सत्त्व साध्य का कोई भी सपक्ष न होने के कारण, उपरोक्त रीति से हेतु विपक्ष ( मात्र ) वृत्ति होगा तब हेतु विरुद्ध भी हो जायेगा ।
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सारांश, आप के अभिप्राय अनुसार व्यावृत्तियों में भेद सिद्ध न होने से अनित्यत्व और कृतकत्व में भी वह सिद्ध नहीं होगा, फलतः कृतकत्व हेतु नहीं बन सकेगा, और अनित्यत्व साध्य नहीं हो सकेगा ।
★ अनित्यत्व - कृतकत्व में साध्य - साधनभाव दुर्घट★
अब यदि ऐसा कहा जाय - कृतकत्व और अनित्यत्व दोनों परमार्थ से अभिन्न ही है, तथापि स्वलक्षण निर्विकल्प के बाद कृतकत्वाध्यवसायी निश्चय जन्म लेता है जो कृतकत्व का भिन्नरूप से अवगाहन करता है । इस प्रकार कृतकत्व की निश्चयात्मक प्रतीति द्वारा भिन्नरूप से निश्चय का विषय बनने वाले कृतकत्व को अब अनित्यत्व का ज्ञापक हेतु बना सकते हैं । तो यह कथन अर्थशून्य है क्योंकि वस्तुगत जो अनित्यत्व और कृतकत्व है उन में तो पूर्ण तादात्म्य सम्बन्ध है किन्तु वे तो निश्चय के विषयभूत नहीं है इस लिये उनमें
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