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________________ द्वितीयः खण्डः - का० - २ व्यवच्छेद्यभेदादपि न व्यवच्छेदभेदः, अनित्या (त्वादि) व्यवच्छेद्यस्य नित्यादेर्व्यवच्छेद्यस्य वस्तुनोऽभावात् भेदाभावप्रसक्तेः । कल्पितव्यवच्छेद्यव्यवच्छेदेन तद्भेदाभ्युपगमे तत्र कल्पनाऽपि इतरव्यवच्छेदेन इत्यन्योन्यव्यवच्छेदेन व्यवच्छेदयोर्व्यवस्थितस्वरूपत्वात् कथं नेतरेतराश्रयदोषः ? अनित्यत्वादिव्यवच्छेदेन नित्यादिव्यवच्छेद्यस्य व्यवस्थायामनित्यादिव्यवच्छेदस्यापि नित्यादिव्यवच्छेद्यात् व्यवच्छेदेन बुद्धिप्रतिभासभेदादेव भेदोऽस्तु किं व्यवच्छेदस्य व्यवच्छेद्यभेदाद् भेदकल्पनया ? तथैव भेदात् व्यवच्छेदस्य साध्यसाधनभावे शब्दत्वादेरपि बुद्धिप्रतिभासभेदेन भेदात् साधनभावः स्यात् । तथा च न कश्चित् प्रतिज्ञार्थैकदेशाऽसिद्धो हेतुः स्यात् । न च शब्दाच्छब्दत्वस्य न प्रतिभासभेदः, अन्यथा धर्म-धर्मव्यवस्थाऽभावप्रसक्तेः । अथ प्रतिभासभेदेऽपि व्यवच्छेद्यभेदाभावात् शब्दत्वस्य प्रतिज्ञार्थैकदेशत्वम्, नन्वेवं भाव - द्रव्याभिधायिनोरभिधानयोरपर्यायता न स्यात् 'शब्द' शब्देन शब्दत्वस्याभिधानात्, अन्यथा प्रतिज्ञार्थैकदेशताऽपि न स्यात् । D है ? अथवा आरोपित है ? अथवा बुद्धिप्रतिभासभेदप्रयुक्त है ? यदि अकृतकव्यावृत्ति और अनित्यव्यावृत्ति का भेद स्वत: है तब भेद (जो कि अभावात्मक होने से तुच्छस्वरूप होता है) वस्तुरूप बन जायेगा, क्योंकि तुच्छस्वरूप आकाशकुसुमादि में स्वतः कुछ भी नहीं होता । जब भेद में वस्तुत्व प्रसक्त होगा तो फिर से वस्तुपक्षभावि क्षणिकत्व - अक्षणिकत्वादि अथवा व्यावृत्तस्वरूप या अनुवृत्तस्वरूप आदि विचार करने पर सामान्य पक्ष में जैसे दोष लागू होते हैं वैसे यहाँ भी होंगे । उपरांत कृतकत्व तो तादात्म्य है । अब वस्तु आत्मक व्यावृत्तियों के स्वतः भेद से, अनित्यत्व- कृतकत्व का भेद सिद्ध करेंगे तो अनित्यत्व और कृतकत्व भेदाभेदात्मक सिद्ध होने से अनेकान्तात्मकता भी सिद्ध होगी, फलतः अनायास हमारा सिद्धान्त सिद्ध हो जायेगा । १९७ ॰व्यवच्छेद्य के भेद से उन व्यावृत्तियों का भेद अशक्य है, क्योंकि नित्यव्यावृत्ति (यानी अनित्यत्व) आदि का व्यवच्छेद्य नित्य आदि कोई वस्तु ही बौद्ध मत से सत् नहीं है फिर उसके भेद से व्यावृत्तियों का भेद कैसे होगा ? अगर काल्पनिक व्यवच्छेद्य (नित्यादि) मान कर उसके व्यवच्छेद से भेद दिखाया जाय तो वहाँ भिन्न भिन्न कल्पनाओं में भी भेद की कल्पना करनी होगी, इस तरह एक दूसरे के व्यवच्छेद के आधार पर एकदूसरे का व्यवच्छेद अवलम्बित हो जाने से अन्योन्याश्रय दोष घुस जायेगा । यदि ऐसा कहें कि - नित्यादि के व्यवच्छेद की व्यवस्था कल्पनाभेद से नहीं किन्तु अनित्यत्वादि व्यवच्छेद के आधार पर करेंगे तो वहाँ भी नित्यादि व्यवच्छेद्य 'अनित्यादिव्यवच्छेद्य की प्राप्ति होने से पुनः अन्योन्याश्रय दोष होगा । इस से तो अच्छा है कि बुद्धिप्रतिभासभेद ही भेद माना जाय, क्यों व्यवच्छेद्यभेद से भेदकल्पना की सिरफोडी की जाय ? ★ प्रतिभासभेद से व्यावृत्तिभेद होने पर शब्दत्वभेद ★ ("विकल्प इस के बाद आयेगा ) अब यदि कृतकत्व और अनित्यत्व दोनों का प्रतिभास भिन्न होने के आधार पर उन दोनों में भेद माना जाय तो इस तरह अनित्यत्व और कृतकत्व में जैसे साध्यसाधन भाव होगा तो शब्दत्व भी साधन बन सकता है, जैसे 'शब्दो नित्यः शब्दत्वात्' क्योंकि शब्द और शब्दत्व में भी प्रतिभासभेद होने से भेद हो जायेगा । यहाँ बौद्ध किसी को भी हेतु में प्रतिज्ञार्थ - एकदेशता के आधार पर असिद्धि का आपादन नहीं कर सकेगा । यदि कहें कि शब्द और शब्दत्व में प्रतिभासभेद ही नहीं है तो यह ठीक नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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