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द्वितीयः खण्ड:-का०-२ पशमविशेषाविभूतप्राक्प्रदर्शितव्याप्तिग्रहणस्वरूपज्ञाने तथैव प्रतिभासमानाः संकेतशब्दस्वरूपस्य संकेतितत्वाद् देशान्तरे कालान्तरे च ततः शब्दात् तदर्थप्रतिपतिराव्यभिचारिण्युपजायत एव । एकत्वं तु शब्दार्थयोः शब्दप्रतिपत्तावनङ्गमेव, तदन्तरेणाऽपि संकेतस्य कर्तुं शक्यत्वात् सार्थकत्वाच्च ।
तेन 'ये यत्र भावतः' [१९-३] इत्यादिप्रयोगे 'न भवन्ति च भावतः कृतसमयाः सर्वस्मिन् वस्तुनि सर्वे ध्वनयः' इत्यसिद्धो हेतुः, यथोक्तवस्तुनि समयस्य प्रतिपादितत्वात् ।
यदपि 'हिमाचलादिषु संकेतव्यवहारकालव्यापकेषु संकेतः सम्भविष्यति' इत्याशय 'तेष्वप्यनेकपरमाणुरूपत्वान संकेतः' इति, [२३-१] तदप्ययुक्तम् समानाऽसमानपरिणतिरूपस्य वस्तुनः साधितत्वात्।
यदपि 'उदयानन्तरापवार्गिषु स्वलक्षणेषु संकेत उत्पन्नानुत्पनेष्वशक्यक्रिय(त?):' इति [पृ. २३ पं० ५] तदप्यसंगतम् एकान्तेनोदयानन्तरापवर्गित्वस्य भावेष्वसिद्धेः । अथाऽन्ते क्षयदर्शनात् प्रागपि - यह गलत है चूँकि हम सामान्य को वस्तु से एकान्तत: सर्वथा अभिन्न भी नहीं मानते हैं अत: एकान्तअभेद पक्ष के अवलम्ब से प्रतीति में भ्रान्तता आदि दोष निरवकाश है।।
यह भी जो कहा था - शब्द जिस अर्थ में संकेतित होते हैं वेही उनके (वाच्य) अर्थ होते हैं यह नियम है किन्तु परमार्थ से शब्दों में अर्थसंकेत का सम्भव ही नहीं हैं - (पृ.पं.) यह भी अयुक्त है, क्योंकि (यहाँ नियम और प्रदर्शित असम्भव के बीच स्पष्ट विरोध है, व्याख्याकार अन्य बात भी दिखाते हैं) वस्तु को हम पारमार्थिक एवं सामान्यविशेषात्मक (अत एव नित्यानित्य) मानते हैं इस लिये उस के नित्यत्व (ऊर्ध्वतासामान्यरूप) अंश को लेकर संकेत-व्यवहार उभयकाल स्थायी होना भी प्रमाणसिद्ध होने से संकेत वास्तव में सम्भव है ।
हालाँकि, शाबलेय-बाहुलेयादि पिण्डविशेष एकदूसरे में अनुगत-अनुविद्ध नहीं होते हैं, किन्तु वे सामान्यपरिणामधारी होने से, पूर्व में कहा है (२४६-१६) तदनुसार क्षयोपशमविशेष (=आत्मशक्तिविशेष) जन्य प्रमाणभूत व्याप्तिग्रहणात्मक ज्ञान में, पूर्वोत्तरजात पिण्डों में 'समान हैं' इस तरह जरूर भासित होते हैं अत एव संकेतविषय भी बनते ही हैं । बौद्ध भी अपने शब्द-वाक्यों को प्रामाणिक ठहराने के लिये व्यावृत्त शब्द का व्यावृत्त अर्थ में संकेत दिखाते हुए कहते ही हैं कि अगोशब्द व्यावृत्त 'गो' शब्द को, संकेत-व्यवहारकाल उभय में व्याप्त ऐसे 'अगो' व्यावृत्त (गाय) आदि पदार्थों में संकेतित किया जाता है; इसीलिये अन्य देश-अन्य काल में भी गाय आदि शब्दों से विना किसी व्यभिचार के गाय आदि अर्थ का बोध उत्पन्न होता है । फर्क सिर्फ इतना ही है कि बौद्ध जिन व्यावृत्तियों में वाच्य-वाचकता का स्वीकार करता है वें उस के मत में तुच्छ स्वरूप है जब कि स्याद्वादी के मत में वे सदृशपरिणामात्मक सामान्य पदार्थरूप है। इस प्रकार वाच्य-वाचकभावात्मक सम्बन्ध शब्द-अर्थ के मध्य में सिद्ध होता है, तादात्म्यस्वरूप एकत्व यहाँ शब्दार्थबोध में जरूरी ही नहीं माना गया, क्योंकि विना तादात्म्य भी उपरोक्त सम्बन्ध से संकेत शक्य भी है एवं सार्थक भी है।
उपरोक्त निरूपण से अब यह निश्चित होता है कि बौद्धने 'जो जहाँ परमार्थत: संकेतित नहीं होते.. [पृ० पं०] इत्यादि अनुमान प्रयोग में जो हेतु किया था 'कोई भी शब्द वास्तव में किसी भी अर्थ में कृतसंकेत नहीं होता' यह हेतु 'शब्द समान-असमान परिणाम विशिष्ट अर्थ में कृतसंकेत हो सकते हैं। इस उपरोक्त निरूपण से असिद्ध ठहराया जाता है।
पहले जो- 'हिमालयादि पर्वत संकेतव्यवहारकालव्यापी होने से उस में संकेत सम्भव की आशंका [पृ०
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