________________
१९४
श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् निश्चयव्यवस्थापकत्वम्, क्षणिकत्वादेरिवाऽनिश्चितस्याऽन्यव्यवस्थापकत्वाऽयोगात् । न च स्वसंवेदनेनाऽनिश्चयात्मनाऽनिश्चितो निश्चयः प्रत्ययव्यवस्थापकः, इति निर्विकल्पकस्वसंवेदनवादिनः प्रत्ययाऽसिद्धेः कथं नाश्रयाऽसिद्धः प्रकृतो हेतुः !!
यदपि 'भवतु वा सामान्यं तथापि तस्य(?) भेदेभ्योऽर्थान्तरत्वे भिन्नेष्वभेदाध्यवसायो भ्रान्तिरेव' [पृ. १८ पं० ७] इत्यादि, तदप्ययुक्तम्: एकान्तभिन्नस्य सामान्यस्य भिनेष्वभेदप्रत्ययहेतुत्वेनाऽनभ्युपगमात् । न ह्यन्येनान्ये समाना अभ्युपगम्यन्ते किन्तु स्वहेतुभ्य एव केचित् समाना उत्पन्नास्तथैव गवादिप्रत्ययविषयाः ।
यदपि 'अनर्थान्तरत्वेऽपि सामान्यस्य' [पृ० १८ पं०८] इत्यादि, तदप्यसत, अनर्थान्त- रत्वेनैकान्तेन तस्याऽनभ्युपगमात्र तत्पक्षभावी भ्रान्तत्वादिदोषः प्रत्ययस्य ।।
यदपि 'यत्रैव हि कृतसमया ध्वनयः स एव तेषामर्थः, न च समयः शब्दानां परमार्थतः सम्भवति' [१९-२] तदप्ययुक्तम्, सामान्य-विशेषरूपस्य वस्तुनः पारमार्थिकस्य संकेत-व्यवहारकालव्यापकस्य प्रमाणसिद्धत्वात् ।
यद्यपि शाबलेयादयो व्यक्तिविशेषाः परस्परं नाऽनुयन्ति तथापि समानपरिणामस्वरूपतया क्षयोकि अर्थ के साथ इन्द्रिय का संपूर्ण सम्बन्ध होने पर भी स्कन्ध के कुछ अंश का ही दर्शन कराने का सामर्थ्य उस में होता है जो कि अन्य अंशों के दर्शन कराने के असामर्थ्य से अभिन्न ही होता है....इत्यादि । [पृ० १७४ पं० १३]
दूसरी बात यह है कि निश्चय का संवेदन अनिश्चयात्मक है, अत: जब तक वह स्वत: निश्चयरूप नहीं है तब तक उस निश्चय का भी स्थापन नहीं कर सकता । जो क्षणिकत्वादि के बारे में निश्चयात्मक संवेदन नहीं होता वह क्षणिकत्व का स्थापक नहीं होता, स्पष्ट बात है।
इस का नतीजा यह है कि निश्चयात्मक स्वसंवेदन निश्चय का भी निश्चायक नहीं है अत: उस से अनिश्चित ऐसे अनुमानादि किसी भी निश्चय से शाब्दिक प्रतीति की भी स्थापना = सिद्धि शक्य नहीं रहेगी । अत: निर्विकल्पस्वसंवेदनप्रत्यक्षवादी के मत में, शाब्दिक प्रत्यय का अस्तित्व ही असिद्ध रह जाने से हेतु का आश्रय-पक्ष भी असिद्ध है, प्रस्तुत (भेदों में अभेदाध्यवसायित्व) हेतु भी क्यों आश्रयासिद्ध नहीं होगा ?
सामान्य में आरोपित का निराकरण★ बौद्धने जो प्रारंभ में कहा था [पृ० १८ पं० २४] 'सामान्य का अस्तित्व भले मानो किन्तु विशेषपदार्थों से उस का भेद मानने पर अभेदाध्यवसाय भ्रान्त हो जायेगा क्योंकि अन्य से अन्यों में समानता (= अभेद) नहीं हो सकती' -....इत्यादि वह सब अयुक्त है, क्योंकि जैन मत में एकान्तत: विशेषभिन्न सामान्य तत्त्व को असमानों में समान प्रतीति का हेतु ही नहीं माना गया है । हम मानते ही नहीं कि - 'पृथग्भूत सामान्य से तदन्य घट-पटादिमें समानता आती है' । अरे गाय आदि कुछ पदार्थ अपने अपने (समान) हेतु से ही समानता धारण करते हुए उत्पन्न होते हैं, और इस तरह समान परिणाम को ले कर उत्पन्न गायादि अभेदप्रतीति के विषय होते हैं ।
यह जो कहा था कि - ‘सामान्य वस्तु से अभिन्न होगा तो उस की महीमा से सारा विश्व अभिन्न-एक हो जाने से कहीं भी समानताप्रतीति नहीं होगी क्योंकि वह अनेकत्व व्याप्य होती है' [पृ० १८ पं० २७]
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org