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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् तदेव चास्या गाथायाः समुदायार्थः । तच्च श्रोतृप्रवृत्त्यर्थम्, प्रयोजनस्य प्रतिपत्तिमन्तरेण प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यनुपपत्तेः, अनभिहितप्रयोजनस्य शास्त्रस्य प्रेक्षापूर्वकारिभिः काकदन्तपरीक्षादेरिवानाश्रयणीयत्वात् । अतः प्रयोजनप्रदर्शनेन तेषां प्रवर्त्तनाय शास्त्रस्यादौ वाक्यं तत्प्रतिपादनपरमुपादेयम् । तदुक्तम्- [लो. वा० सू० श्लो० १२]
सर्वस्यैव हि शास्त्रस्य कर्मणो वाऽपि कस्यचित् । यावत् प्रयोजनं नोक्तं तावत् तत् केन गृह्यते ॥ पुनरप्युक्तम्- अनिर्दिष्ट फलं सर्व न प्रेक्षापूर्वकारिभिः । शास्त्रमाद्रियते तेन वाच्यमग्रे प्रयोजनम् ॥
शास्त्रस्य तु फले दृष्टे तत्प्राप्त्याशावशीकृताः । प्रेक्षावन्तः प्रवर्तन्ते तेन वाच्यं प्रयोजनम् ॥
यावत् प्रयोजनेनास्य सम्बन्धो नाभिधीयते । असम्बद्धप्रलापित्वाद् भवेत्तावदसंगतिः ॥ तस्माद् व्याख्याङ्गमिच्छद्भिः सहेतुस्सप्रयोजनः । शास्त्रावतारसम्बन्धो वाच्यो नान्यस्तु निष्फलः ॥
[लो० वा. सू० १ श्लो० २ और २५] इत्यादि ।
★ प्रयोजनप्रतिपादन का प्रयोजन ★ [प्रयोजन के दो प्रकार हैं (१) ग्रन्थ कर्ता का प्रयोजन और (२) श्रोता का प्रयोजन । ग्रन्थ के अध्ययन द्वारा जिज्ञासित अर्थ का बोध यह श्रोता का प्रयोजन होता है । जिज्ञासित अर्थबोध के लिये श्रोता अपने ग्रन्थ के पठन में प्रवृत्ति करे - यह ग्रन्थकार का प्रयोजन होता है और इसी लिये ग्रन्थकार आदिवाक्य में श्रोता के प्रयोजन का उल्लेख करते हैं इतना संदर्भ ख्याल में रख कर अब पढना।]
___ 'प्रकरण का अभिधेय (यानी उसका निदर्शन) निष्प्रयोजन है' इस आशंका का निराकरण, जो गाथा की अवतरणिका में दिखाया गया है वही इस गाथा के पादचतुष्टय का मुकुलित अर्थ है । तब जिज्ञासा होगी कि इसके अभिधेय को दिखाने का क्या प्रयोजन है- उसका उत्तर यह है- श्रोतावर्ग की प्रवृत्ति के लिये अभिधेय अर्थ का निर्देश किया जाता है। बुद्धिमान लोग तत्तत् कार्य में प्रवृत्ति के लिये तदनुकुलतत्त्वबोध की आशा करते हैं । जब तक वे नहीं जानते हैं कि हमारा इष्ट तत्त्वबोधरूप प्रयोजन इस प्रकरण से लभ्य है तब तक बुद्धिमान लोगों की उस प्रकरण के अभ्यास में प्रवृत्ति नहीं हो सकती । कौए के दाँतों की परीक्षा का कोई प्रयोजन न होने से जैसे बुद्धिमान लोग उसमें आदर नहीं करते वैसे ही जिस शास्त्रमें प्रयोजन (= श्रोता का प्रयोजन यानी उस शास्त्र से श्रोता को जिस अर्थ का बोध प्राप्त होने वाला है वह) अप्रगट हो उस शास्त्र का श्रवण बुद्धिमानों के लिये आदरणीय नहीं होता । इसी लिये श्रोतावर्ग को इस शास्त्र के श्रवण से किन तत्त्वों का बोध होगा यह दिखा कर उनको इसके श्रवण में प्रवृत्त करने के लिये प्रकरण के अभिधेय अर्थ को दिखानेवाला वाक्य उपादेय है, निष्प्रयोजन नहीं है । जैसे कि कहा है
"सभी शास्त्रों का या किसी भी कर्म का जब तक (श्रोता का) प्रयोजन नहीं कहा जाता तब तक कौन उसका आदर करता है ?! और भी कहा है
"जिस के फल का निर्देश न किया हो ऐसे किसी भी शास्र का बुद्धिमानों के द्वारा आदर नहीं किया जाता; अत एव प्रारम्भ में प्रयोजन दिखाना चाहिये ॥"
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