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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ १८९ व्यतिरेकेणानुपलक्षणप्रसक्तिः । न च वर्णयोस्तथाभूतलघुवृत्तेरभावात् परस्परव्यतिरेकेणोपलक्षणसद्भावः, युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिवादिनोऽपि ताभ्यां व्यभिचाराभावप्रसक्तेः । नापि सादृश्याद् विकल्पाऽविकल्पयोर्भेदेनानुपलक्षणम्, सन्तानेतरविषयत्वेन तयोरेकविषयत्वकृतसादृश्याभावात् । ज्ञानरूपतया सादृश्ये नीलाsनीलाकारज्ञानयोरपि ज्ञानात्मना सादृश्यान स्याद् भेदेनोपलक्षणम् । तनाऽविकल्पकज्ञानसद्भावः । अथ यदि प्रथमाक्षसन्निपात एव सविकल्पकं दर्शनमुदयमसादयति तद्ग्राह्यस्त्वर्थात्मा, तथा सत्यर्थग्रहणाभाव एव प्रसक्तः । तथाहि - अर्थदर्शने सति तत्सनिधाने दृष्टे तद्वाचके स्मृतिः, तत्स्मृतौ च तेनार्थ योजयति, तद्योजितं चार्थं विकल्पिका बुद्धिरध्यवस्यति । न च सविकल्पप्रत्यक्षवादी अशब्दकमर्थ पश्यति, तद्दर्शनमन्तरेण च (न) तद्वचःस्मृतिः, तामन्तरेण च न वचनपरिष्वक्तार्थदर्शनम् इत्यर्थदर्शनाभाव एव प्रसक्तः । असदेतत् - यतो 'अशब्दकमर्थं विकल्पो नावगच्छति' इत्यभ्युपगम्यते तदा स्यादयं दोषः, न चास्माभिः शब्दसंयोजितार्थग्रहणं विकल्पोऽभ्युपगम्यते, किं तर्हि ? निरंशक्षणियदि शीघ्रता के कारण क्रम लक्षित नहीं होता तो 'घ-ट' के उच्चारण में कैसे वह भासित होता है ? जब कि शीघ्रता तो यहाँ भी है । इस प्रकार शीघ्रता के कारण क्रम अनुपलक्षित होने के नियम में जो बौद्ध 'घ-ट' उच्चारण को लेकर व्यभिचार दिखाता है वह अब नहीं दिखा सकेगा यदि वर्णद्वय के उच्चारण में शीघ्रता का निषेध करेगा। यदि ऐसा कहे किं - सादृश्य के कारण विकल्प और अविकल्प में भेद उपलक्षित नहीं होता - तो यह गलत है क्योंकि विकल्प का विषय सन्तान और अविकल्प का विषय क्षण है अत: उन दोनों में एकविषयता कृत सादृश्य का सम्भव ही नहीं है । और यदि सिर्फ ज्ञानस्वरूपतारूप सादृश्य ही भेद-अनुपलक्षण का बीज कहा जाय तो नीलाकार और अनीलाकार दो ज्ञानों में भी ज्ञानस्वरूपतात्मक सादृश्य विद्यमान है अत: नीलाकार और पीताकार ज्ञानों में भी भेदबुद्धि नहीं होगी। निष्कर्ष, विकल्पभिन्न निर्विकल्प जैसा कोई ज्ञान ही सिद्ध नहीं है । बौद्ध : वस्तु सर्वप्रथम इन्द्रियसम्पर्क में आने पर, तुरंत ही सविकल्पक प्रत्यक्ष का ही उदय होता है और उसी से अर्थस्वरूप का ग्रहण होता है ऐसा जब आप मानेंगे तब तो अर्थग्रहण की सम्भावना ही मिट जायेगी । वह इस प्रकार : एक बात तो सुनिश्चित है कि सविकल्पप्रत्यक्ष प्रमाणवादी के मत में शब्दनिरपेक्ष यानी शब्दअसंश्लिष्ट सिर्फ अकेले अर्थ का तो कभी दर्शन नहीं होता । अब इस की उपपत्ति सोचिये, प्रथम अर्थदर्शन होगा, बाद में उस अर्थ के सम्बन्धीरूप में दृष्ट यानी ज्ञात उस के वाचक शब्द का स्मरण होगा । स्मरण के बाद शब्द को अर्थ में योजित करेगा, तब शब्दयोजित अर्थ को विकल्पबुद्धि अध्यवसित करेगी। किन्तु यहाँ मूल में ही क्षति है, सविकल्पप्रत्यक्षवादी के मत में अशब्दयोजित अर्थ का तो दर्शन ही नहीं होगा, यही मूल में क्षति है, अत: दर्शन के विना वाचक शब्द का स्मरण भी नहीं होगा, उस के विना वचनालिंगित अर्थ का विकल्पज्ञान ही नहीं होगा । फलत: किसी भी उपाय से अर्थदर्शन नहीं होगा । हमारे मत में तो पहले शब्दाऽनालिंगित अर्थदर्शनरूप अविकल्पज्ञान मान्य है, इसलिये उपरोक्त श्रृंखला में कहीं भी क्षति नहीं आयेगी । स्याद्वादी : आप का यह कथन गलत है क्योंकि यदि हम ऐसा मानते हैं कि – "विकल्प से शब्दविनिर्मुमुक्त अर्थ का दर्शन होता ही नहीं' तब तो आपने जो मूलक्षति दोष दिखाया है वह लागू होता, हम तो 'शब्दसंयोजित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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