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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् चिदुत्पत्तिदर्शनादपरस्यापि तज्जातीयताऽविकल्पदर्शनस्य विकल्पवदनर्थजन्यत्वप्रसक्तेः ।
न चैकत्र विकल्पेऽवैशयदर्शनात् तज्जातीयतया सर्वत्र तथाभावसिद्धिः, अविकल्पस्यापि दूरार्थग्राहिणः कस्यचिदवैशयोपलब्धेः तदन्यस्यापि तद्भावप्रसक्तेः । तत् स्थितमक्षभाविनो विकल्पस्यार्थसाक्षात्करणलक्षणं वैशद्यम् । तेन स्वव्यापारमेवमादर्शयतो विकल्पस्योत्पत्तेः ‘स्वव्यापारमुत्प्रेक्षात्मकं तिरस्कृत्य दर्शनव्यापारानुसरणाद् विकल्पः प्रमाणं न भवति' इत्येतनिरस्तं द्रष्टव्यम् । विकल्पश्चैक एवार्थग्राह्युपलक्ष्यते नापरं दर्शनम् यद्व्यापारानुसारिणो विकल्पस्याऽप्रामाण्यं भवद्भिः गृहीतग्राहीतया प्रतिपात । विकल्पाऽविकल्पयोर्लघुवृत्तेर्विकल्पव्यतिरेकेणाऽविकल्पस्यानुपलक्षणेऽङ्गीक्रियमाणे वर्णयोरपि लघुवृत्तेरितरेतरसे सोच लीजिये कि अतीतादिविषयक विकल्प और घटादि प्रत्यक्षविकल्प समानजातीय नहीं है अतः सभी विकल्पों में अर्थजन्यत्वाभाव प्रसक्त नहीं होगा।
*विकल्प में अर्थसाक्षात्कारस्वरूप वैशय ★ विकल्प में जैसे अर्थजन्यत्व का अभाव सिद्ध नहीं होता वैसे ही, किसी एक विकल्प में स्पष्टता न दिखने पर तादृश विकल्पजातीय सभी विकल्पों में स्पष्टता का अभाव सिद्ध करने की चेष्टा भी व्यर्थ है। क्योंकि ऐसे तो किसी एक दूरस्थितआम्रादिग्राही अविकल्प भी (सिर्फ वृक्ष का ही, न कि आम्र का, अवगाही होने से) अस्पष्ट ही उत्पन्न होता है तो उस के उदाहरण से समानजातीय सभी अविकल्पों में अस्पष्टता की विपदा आयेगी। निष्कर्ष यह फलित होता है - विकल्प भी इन्द्रियजन्य और अर्थसाक्षात्कारस्वरूप स्पष्टता से अलंकृत ही होता है । और वह साक्षात्कार स्वरूप होता है इसीलिये अपने अर्थप्रकाशनस्वरूप व्यापार को व्यक्त करता हुआ ही उत्पन्न होता है । इसीलिये जो किसीने यह कहा है कि 'विकल्प प्रमाणभूत नहीं है क्योंकि वह अपने कल्पनास्वरूप (यानी नाम-जात्यादियोजना स्वरूप) व्यापार को छीपा कर दर्शन के ही व्यापार का अनुसरण करता हुआ उत्पन्न होता है' यह निरस्त हो जाता है क्योंकि यह गलत बात है कि वह अपने व्यापार को छीपाता है ।
★ विकल्प से भिन्न निर्विकल्पज्ञान की समीक्षा * __ सच बात तो यह है कि जिस दर्शन के व्यापार का अनुसरण करने के कारण गृहीतग्राही हो जाने वाले विकल्प को आप अप्रमाण ठहराना चाहते है वह दर्शन तो अर्थग्राही (अर्थसाक्षात्कारकर्ता) के रूप में लक्षित भी नहीं होता, सिर्फ विकल्प ही अर्थग्राही के रूप में लक्षित होता है। यदि ऐसा कहा जाय कि 'विकल्प के बाद शीघ्र ही विकल्प उत्पन्न हो जाने से शीघ्रता के कारण, विकल्प से अलग अविकल्प लक्षित नहीं होता' तब तो एक वर्ण के बाद शीघ्र ही अन्य वर्ण की उत्पत्ति हो जाने से 'घ' और 'ट' ये दो वर्ण भी एक-दूसरे से अलग-थलग लक्षित न होने की विपदा आयेगी । ऐसा नहीं कह सकते कि 'वर्णद्वय के उच्चारण में तो वैसी शीघ्रता न होने से एक-दूसरे से अलग बोध हो जाने का पूरा सम्भव है' - यदि ऐसा कहेंगे तो फिर एक साथ अनेक इन्द्रियों से जन्य विविक्त ज्ञान की उत्पत्ति जो नहीं मानते हैं उन नैयायिकादि विद्वानों के प्रति आप जो शीघ्रता के कारण घ-ट की विविक्त प्रतीति में उस नियम का व्यभिचार प्रतिपादित करते हैं वह भी नहीं हो सकेगा । तात्पर्य ऐसा है कि दीर्घशष्कुलीभक्षण में जब पाँच इन्द्रियों से एक साथ अनेक ज्ञान महसूस होते हैं तब कुछ लोग कहते हैं कि वे क्रमश: उत्पन्न होते हैं, एक साथ नहीं, फिर भी शीघ्रोत्पत्ति के कारण वहाँ क्रम लक्षित न होने से एक साथ उत्पत्ति भासित होती है- उन के सामने बौद्ध कहते हैं कि
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