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________________ द्वितीय: खण्ड:-का०-२ १८७ ल्पात्मकज्ञानस्य वैशद्यम् । न च जलभ्रान्तेरवैशद्यम्, जलभ्रान्त्याधारसमानदेशजलप्रतिभासाऽविशेषात् । न च युगपवृत्तिर्ज्ञानयोः सिद्धा, सकृद्भावे हि ज्ञानयोयुगपवृत्तिः स्यात् । न चैकस्मात् सामग्रीविशेषादर्थेन्द्रियादिलक्षणाद् युगपत् कार्यद्वयस्य विकल्पाऽविकल्पस्योदयो युक्तः, यतः सामग्रीभेदात् कार्यस्य तत्प्रभवस्य भेदो युक्तः, अन्यथा निर्हेतुकः स स्यात् । अथ कार्यव्यतिरेकात् कारणस्य तत्र सामर्थ्यावधारणम् । अर्थादिव्यतिरेकाच्च न विकल्पव्यतिरेकः एतत्समानजातीयानामतीतादिविकल्पानामर्थायभावेऽपि भावादित्यविकल्पोत्पादन एवार्थेन्द्रियादेः सामर्थ्यमवसीयते इत्यभ्युपगमादस्त्येव सामग्रीभेदः ततः कार्यभेदोऽपि सङ्गत एव । असदेतत् तिमिरपरिकरितचक्षुषोऽर्थव्यतिरेकेणाप्यविकल्पकस्य कस्यमें स्पष्टावभास होता है' - तब तो विकल्प में भी आखिर प्रकृतिविभ्रम से स्पष्टावभास सिद्ध है । प्रकृतिविभ्रम यानी स्वयं मिथ्यारूप होने पर भी सत्यात्मक लक्षित होना । विकल्प में यद्यपि ऐसा प्रकृतिविभ्रम जैनमतसम्मत तो नहीं है फिर भी वह बौद्धसम्मत होने से उस में स्पष्टता का प्रसंजन करने में कोई नुकसान नहीं है । यदि बौद्ध ऐसा कहे कि - 'जलभ्रान्ति में स्पष्टावभासिता होती ही नहीं' - तो उस का स्वीकार अशक्य है क्योंकि सत्यजलज्ञान और जलभ्रान्ति दोनों में आधारभूत देश का जैसे स्पष्टावभास होता है वैसे ही जल का भी स्पष्ट अवभास होता है । ★ एक सामग्री से विकल्प-अविकल्प दोनों का उद्भव असंगत ★ एक साथ विकल्प-अविकल्प दो ज्ञान की उत्पत्ति जो आप बता रहे हैं यह भी असिद्ध है । इन्द्रिय-विषयादि एक ही विशिष्ट सामग्री से एक साथ विकल्प और अविकल्प ऐसे दो कार्यभूत ज्ञानों की उत्पत्ति संगत नहीं है । कारण, सामग्रीजन्य कार्यों का भेद, सामग्री भिन्न भिन्न होने पर ही युक्त होता है, सामग्रीभेद विना भी यदि कार्यभेद मानेंगे तब तो कार्यभेद अहेतुक हो जाने से, या तो सर्वत्र प्रसक्त होगा, अथवा कहीं भी नहीं होगा। अब यदि ऐसा कहा जाय कि- 'अभिमत कारण के न रहने पर जब कार्य उत्पन्न नहीं होता तब उस कारण को तत्कार्योत्पत्तिसमर्थ माना जाता है । प्रस्तुत में देखिये कि, अर्थ-इन्द्रियादि के न रहने पर विकल्प का उदय न होता हो ऐसा इसलिये नहीं है कि अतीतादि अर्थों के बारे में, उन के न होते हुये भी, उन के अतीतानुभवों के समानजातीय विकल्पों का उदय होता रहता है । अविकल्प का उदय अर्थादि के न रहने पर कभी नहीं होता, अत: इन्द्रिय-विषयादिसामग्री अविकल्प की उत्पत्ति में समर्थ होने का सिद्ध होता है। यह सिद्ध होने पर विकल्प और अविकल्प की सामग्री में भी भेद होने का सिद्ध हो जाने से, कार्यभेद का होना भी अब युक्तिसंगत ठहरता है ।' यह कथन गलत है कि अर्थ के विना अविकल्प की उत्पत्ति नहीं होती, तिमिर रोग ग्रस्त नेत्रवाले मनुष्य को कुछ केशोण्डुकादि का निर्विकल्प दर्शन भी विना केश ही होने का देखा जाता है, तब उसके समान जातीय अन्य निर्विकल्पों में भी विकल्पों की तरह अब अर्थजन्यत्व का, उपरोक्त आपकी युक्ति के अनुसार अभाव प्रसक्त होगा । यदि कहा जाय- 'इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष और तैमिरिक का अनुभव ये दोनों समान जातीय नहीं है, भिन्न हैं, अत: प्रत्यक्ष में अर्थजन्यत्व का अभाव प्रसक्त नहीं होगा ।'- तो यह बात सविकल्प में भी समानरूप *. लिम्बडीप्रतौ 'एत' स्थाने 'पत' इति पाठान्तरम् । 'यत:' इति तु संगच्छते । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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