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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् योरेकत्वाध्यवसाय इति चेत् ? न, शब्दादिस्वलक्षणेऽध्यक्षगोचरे क्षणक्षयमनुमानानिश्चिन्वतोऽनुभव-विकल्पयोर्युगपद्भावेऽप्यभेदाध्यवासायाभावात् । मरीचिकायां जलभ्रान्तेर्विशदावभासे च निमित्तं वक्तव्यम्, विकल्पाऽविकल्पयोर्युगपद्भावनिमित्तस्य तत्राभावात् तदोपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलम्भाद् दर्शनस्याभावात् तत्सद्भावे वा न जलाकारं दर्शनम् जलभ्रान्तेरक्षजत्वानभ्युपगमात् । नापि मरीचिकाविषयम् भिन्नाधिकरणतया तयोरेकीकरणाऽसम्भवात्, सम्भवे वा घटानुभावस्य पटस्मरणादावपि प्रसङ्गः । प्रत्यक्षासनवृत्तित्वाद् वैशयभ्रमेऽन्यत्रापि सैवास्तु किं युगपज्ज्ञानोत्पत्तिकल्पनया ? प्रकृतिविभ्रमादेवाऽस्य तथाभावे सिद्धं विकफलत: एकविषयता प्रयुक्त स्पष्टावभास स्मरण में भी प्रसक्त होगा । यदि कहें कि – 'दर्शन और स्मरण एकसन्तानगत होने पर भी स्मरण वस्तु के अतीतत्व को उजागर करता है, 'मेरा विषय वर्त्तमान है' इस ढंग से वह वर्तमानरूप से वस्तु-अवबोध नहीं करता । अत: दर्शन-स्मरण में एकत्व का अध्यवसाय निरवकाश है।' - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वहाँ नहीं तो अन्यत्र, जब एक आदमी शब्दात्मक स्वलक्षण का प्रत्यक्ष कर रहा है, साथ साथ क्षणिकत्व के अनुमान की समानकालीन सामग्री से क्षणिकत्व का शब्द में ही निश्चय भी कर रहा है उस स्थान में प्रत्यक्ष और आनुमानिक निश्चय दोनों ही वर्तमान रूप से शब्द के ग्राहक हैं किन्तु वहाँ आनुमानिक निश्चय और प्रत्यक्ष में वर्तमानरूप से एकविषयता प्रयुक्त अभेदाध्यवसाय कहाँ होता है ?
★ विकल्प में स्पष्टतावभास का निमित्त ★ उपरांत, अगर आप मरीचिका (मृगतृष्णिका) में जल की भ्रान्ति में स्पष्टतावभास क्यों होता है यह सोचेंगे तो तुरंत पता चल जायेगा कि युगपद् उत्पत्तिमूलक अभेदाध्यवसाय स्पष्टतावभास का निमित्त नहीं है । कारण वहाँ जलभ्रान्ति की घटना में विकल्प और निर्विकल्प को एक साथ उत्पन्न होने के लिये सामग्री ही नहीं है । दर्शन तो वहाँ सम्भवित नहीं है क्योंकि दर्शन उपलब्धि के लिये योग्य होने पर भी उस समय उपलब्ध (= अनुभूत) नहीं होता । अगर मानों कि वहाँ दर्शन का अनुभव होता है, तो वह दर्शन जलाकार नहीं होगा (अन्य किसी आकार का होगा) क्योंकि अगर दर्शन को जलाकार मानेंगे तो वह भ्रान्तिरूप मानना होगा, और भ्रान्ति को तो बौद्ध विद्वान् इन्द्रियजन्य नहीं किन्तु वासनाजन्य मानते हैं जब कि दर्शन तो इन्द्रियजन्य होता है - इसलिये वहाँ जलदर्शन तो हो नहीं सकता । यदि कहें कि - ‘जलाकार दर्शन भले न हो मरिचिका (= परावर्तित प्रकाश) का तो दर्शन हो सकता है' - तो बात ठीक है लेकिन तब दर्शन का विषय मरीचिका
और भ्रान्तिरूप विकल्प का विषय जल, इस प्रकार दोनों में भिन्नविषयता हो जाने से दर्शन और विकल्प का एकीकरण = अभेदाध्यवसाय वहाँ सम्भवित नहीं रहेगा । भिन्नविषयता होने पर भी यदि एकीकरण मानेंगे तब तो वस्त्र के स्मरण काल में घटानुभव के एकीकरण का अनिष्ट प्रसक्त होगा । मतलब वस्त्र के स्मरण की और घटदर्शन की सामग्री जब एक काल में उपस्थित रहेगी तब वस्त्रस्मरण और घटदर्शन दोनों एक साथ उत्पन्न होंगे और भिन्नविषयता होने पर भी वहाँ अभेदाध्यवसाय होगा !
अब इन सभी झंझटो से छुटकारा पाने के लिये यदि वहाँ स्पष्टावभासी जलभ्रम में प्रत्यक्षनिकटता को यानी पूर्वक्षण में उत्पन्न हुए प्रत्यक्ष के सान्निध्य को निमित्त मानेंगे तो फिर सामान्यग्राही दर्शनजन्य विकल्प में भी स्पष्टावभासिता का वही निमित्त क्यों नहीं मान लेते ? क्यों वहाँ 'एकसाथ ज्ञानोत्पत्ति' को निमित्त दिखाने की झंझट में उलझ रहे हो ? यदि ऐसा कहें कि 'प्रकृति यानी अपने स्वभाव के विभ्रम से ही जलभ्रान्ति
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