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________________ द्वितीय: खण्ड:-का०-२ १८५ विच्छेदानुपलक्षणम् वर्णद्वयादिनाऽनेकान्तात् । 'विकल्पात्मनोत्पत्तिरेवेन्द्रियजस्यात्मन्यपरसमारोप:' चेत् ? नन्वेवं सर्वेन्द्रियजा बुद्धिर्विकल्पकत्वेनाऽसत्या स्यात् । विकल्पस्यापि नाविकल्परूपेणोत्पत्तिरेकत्वाध्ययवसायः, विकल्पात्मनो वैशयाभावात् । युगपद्वृत्तेश्चाभेदाध्यवसाये दीर्घशष्कुलीभक्षणादौ रूपादिज्ञानपञ्चकस्यापि सहोत्पत्तेरेकत्वाध्यवसायः किं नाभ्युपगम्येत ! 'भिन्न विषयत्वात् तेषा स नेष्यते' इति चेत् ! तर्हि प्रकृतेऽपि स मा भूत, क्षणसन्तानविषयत्वेनाऽविकल्प-सविकल्पयोनिविषयत्वात् ।। न हि विकल्पे निरंशैकाक्षणावभासो लक्ष्यते तल्लक्षणे क्षणक्षयानुमानवैयर्थ्यप्रसक्तेः । क्षणविषयत्वेऽपि वा न तयोरेकविषयत्वम् स्वोपादानविषय-तत्समानसमयक्षणगोचरत्वात् । एकसन्तानसमाश्रयेण द्वयोरप्येकविषयत्वे दर्शनस्मरणयोरभिन्नसन्तानाधिकरणयोरपि स्यात् । 'वर्तमानार्थतया प्रवृत्तेर्न दर्शन-स्मरणक्रमिकता होने पर भी यानी समानकालता न होने पर भी दोनों के बीच शीघ्रता के कारण भेद उपलक्षित नहीं होता - इस से एकत्वाध्यवसाय होता है।' - तो यहाँ द्वयवर्णा उच्चारण में अनैकान्तिकता स्पष्ट है, 'घ-ट' उच्चारण में 'घ' के बाद शीघ्र ही 'ट' का उच्चारण होता है किन्तु शीघ्रता के कारण वहाँ दोनों का भेद लक्षित न होता हो ऐसा तो नहीं है फिर कैसे एकत्वाध्यवसाय कहा जाय ?! यदि ऐसा कहा जाय - 'इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ही दूसरे क्षण में विकल्पज्ञानात्मना उत्पन्न होता है - यही अविकल्प में विकल्प का अध्यारोप है और एकत्वाध्यवसाय भी' - तब तो इन्द्रियजन्य हर कोई बुद्धि विकल्पात्मक होने के कारण भिथ्या यानी अप्रमाण हो जाने की आपत्ति सिर उठायेगी यदि इस आपत्ति को टालने के लिये कहा जाय कि - 'अविकल्प की विकल्परूप से नहीं किन्तु विकल्प की अविकल्परूप से उत्पत्ति होना यही एकत्वाध्यवसाय है' - तो यह भी कहना मुश्किल है क्योंकि विकल्प आप के मत से अस्पष्टावभास स्वरूप होने से उसकी अविकल्परूप से उत्पत्ति होगी तो वह अविकल्प भी अपनी स्पष्टावभासता को खो बैठेगा । आखिर पुन: ऐसा कहें कि दोनों एक साथ उत्पन्न होते हैं इस लिये ही दोनों का अभेदाध्यवसाय होता है - तब दीर्घशष्कुली के भक्षणकाल में एक साथ उत्पन्न होने वाले रूप-रसादि ज्ञानों को भी अभेदाध्यवसायी मान लेने की झंझट खडी होगी । यदि इस से बचने के लिये ऐसा कहेंगे कि - 'यहाँ सभी ज्ञानों का विषय रूप-रसादि भिन्न भिन्न है, जब कि विकल्प तो अविकल्प के विषय को थोडा कुछ नाम-जात्यादि और जोड कर ग्रहण करता है, उस में सर्वथा भिन्न विषयता नहीं है,' - तो यहाँ भी भिन्न विषयता इस प्रकार है कि अविकल्प का विषय तत्तत् रूपादिक्षण होता है जब कि विकल्प का विषय तत्तद् रूपादिसन्तान होता है अत: अभेदाध्यवसाय और उस से स्पष्टावभास होने की बात गलत है। विकल्प-निर्विकल्प में एकविषयता दुर्घट★ विकल्प का विषय सन्तान ही लक्षित होता है, निरंश एकक्षण मात्र का भान विकल्प में लक्षित नहीं होता । और विकल्प में क्षणमात्र लक्षित होगा तो क्षणिकत्व का अनुमान निरर्थक बन जाने की आपत्ति होगी । कदाचित् मान लिया जाय कि विकल्प में क्षण का अवगाहन होता है तो भी सविकल्प-निर्विकल्प तो विकल्प के उपादानभूत ज्ञान (निर्विकल्प स्वयं) में भासित होने वाले क्षण को विषय करता है जब कि विकल्प तो अपने समानकालीन क्षण को विषय करता है । यदि ऐसा कहें कि - "निर्विकल्प और सविकल्प एक सन्तानपतित होने से एकविषयता हो सकती है' - तो फिर एकसन्तानपतित दर्शन और स्मरण भी एक विषयक हो जायेगा, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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