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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् कानेकपरमाणुविलक्षणस्थिरस्थूरार्थग्रहणम्, तच्च प्रथमाक्षसन्निपातवेलायामप्यनुभूयते ।
तथा, संहृतसकलविकल्पावस्थायामपि न निरंशक्षणिकानेकपरमाणुप्रतिभासः, स्थिरस्थूलरूपस्य बहिःस्तम्भादेाह्यरूपतां बिभ्राणस्य प्रतिभासनात् । यदि पुनरभिलाषसंसृष्टार्थाध्यवसाप्येव विकल्पोऽभ्युपगम्यते तदा तदनुत्पत्तिरेव प्रसक्ता । तथाहि - यावत् पुरो व्यवस्थितं वस्तु नीलादित्वे(न) न निश्चितं न तावत् तत्सन्निधानोपलब्धतद्वाचकस्मृत्यादिक्रमेण तत्परिष्वक्तार्थनिश्चयः यावच्च न निश्चयो न तावत् तद्वाचकस्मृत्यादि, क्षणक्षयादाविवाऽनिश्चिते वाचकस्मृत्यादेरयोगात् । योगे वा शब्दानुभवानन्तरं 'क्षणिकः' इति वाचकस्मृत्यादिक्रमेण तनिश्चयोत्पत्तेः क्षणक्षयानुमानमपार्थकं स्यात् । अपि च, 'तद्वाचकस्यापि स्मरणमपरतद्वाचकयोगमन्तरेण भवदभ्युपगमेन न सम्भवति, तद्योजनमपि स्मरणमन्तरेण, स्मरणमअर्थ को ही विकल्प ग्रहण करता है। ऐसा मानते ही नहीं । तो फिर क्या मानते हैं ? हम विकल्प से स्थिर एवं स्थूल अर्थ का ग्रहण मानते हैं जो कि क्षणिक अनेक परमाणुपुञ्ज के ग्रहण की आप की मान्यता से सर्वथा उलटा है । सर्व प्रथम इन्द्रिय-अर्थ सम्पर्क होने पर भी स्थिर-स्थूल अर्थग्राही विकल्प का ही अनुभव होता है, क्षणिक - परमाणुपुञ्जग्राही अविकल्प का नहीं ।
★विकल्प मुक्त अवस्था में भी स्थिर-स्थूल-बाह्यार्थ का भान* उपरांत, जब मन सकल विकल्पों के घेरे से मुक्त रह कर सामने रहे हुए स्तम्भादि वस्तु पर दृष्टिपात करता है तब निरंश-क्षणिक-अनेक परमाणु के पुञ्ज का प्रतिभास नहीं होता - अपितु स्थिर, स्थूल एवं बाह्य रूप से ग्राह्याकार को धारण करते हुए स्तम्भादि का ही अवबोध होता है । कदाचित् मन में अश्व का विकल्प चल रहा हो तभी यदि सामने खडे हुए गाय आदि के ऊपर दृष्टिपात हो जाय तो तब अश्व-गाय का अभेदाध्यवसाय नहीं होता किन्तु स्थिर एवं स्थूल तथा बाह्य के रूप में अवबोध का विषय बनते हुए गाय आदि का ही प्रतिभास होता है। __यदि विकल्प शब्दसंयोजित अर्थ का ही अध्यवसायी होता है' ऐसी मान्यता का आग्रह रखेंगे तो वैसे विकल्प की उत्पत्ति ही सम्भवातीत हो जायेगी । पहले ही हम कह आये हैं कि अविकल्पज्ञान की सम्भावना ही असंगत है इस लिये अविकल्प के बाद सविकल्प की उत्पत्ति भी नहीं मानी जा सकती । अब यदि विकल्प को शब्दसंमिलितार्थग्राही मानने में आग्रह है तो आपने पहले कहा है उसी रीति से विकल्प का अनुत्थान फलित होगा - जैसे : जब तक सम्मुख अवस्थित वस्तु का नीलादिरूप से निश्चय नहीं होगा तब तक तत्सम्बन्धिरूप से पूर्वज्ञात वाचक शब्द का नहीं होगा, स्मरण के अभाव में उस का अर्थ के साथ संयोजन नहीं होगा, संयोजन के न होने पर शब्द से आलिंगित अर्थ का ग्रहण नहीं होगा । जब तक अर्थनिश्चय नहीं होगा तब तक उस के वाचक शब्द के स्मरण का भी संभव नहीं है । क्योंकि यह तो आप भी जानते हैं कि क्षणिकत्व का निश्चय न होने के कारण तद्वाचक शब्द का स्मरण आदि नहीं होता है । यदि क्षणिकत्व के अनुभव के विना भी उस के वाचक का स्मरण मानेंगे तब तो शब्द का श्रवण होने पर तद्गत क्षणिकत्व के अनुभव के अभाव में भी क्षणिकत्व का निश्चय उत्पन्न हो जायेगा, फलतः शब्द में क्षणिकत्व का अनुमान अर्थशून्य बन जायेगा ।
*सविकल्प से अर्थव्यवस्था, अन्यथा व्यवहारोच्छेद ★ और भी आगे बढ कर यह कह सकते हैं कि वाचक का स्मरण भी आखिर तो एक विकल्पस्वरूप
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