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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ १८३ योग्यतायाः प्रतिबन्धसाधकोऽभ्युपगन्तव्यः, अन्यथा अनुमानादिव्यवहारोच्छेद एव । न चात्राप्यनवस्था, न हि प्रतिबन्धनिश्चयापेक्षो लिंगवदयं गमकः, प्रत्यक्षवद् योग्यतयैव स्वार्थप्रकाशनात्, स्वहेतोरेव नियतार्थप्रकाशनयोग्यस्यास्योत्पत्तेः । न च स्वलक्षणदर्शनानन्तरभाविनो विकल्पस्याऽस्पष्टावभासितया न सामान्यग्राहकत्वम्, उन्मीलितचक्षुषोः पुरोऽवस्थिते समानाकारेऽर्थे स्पष्टतया तस्यावभासनात् । अथ सविकल्पाऽविकल्पयोर्युगपद्वृत्तेर्विमूढः तयोरैक्यमध्यवस्यति इति स्पष्टतावभासः । असदेतत् सविकल्पाऽविकल्पयोः किमेकविषयत्वम्, उतान्यतरेणान्यतरस्य विषयीकरणम् आहोस्विदपरत्रेतरस्याध्यारोपस्तयोरेकत्वाध्यवसाय इति विकल्पैरनुहै कि नीलादिज्ञान उस के उत्पादक नीलादि अर्थ से जैसे समानाकार होता है वैसे ही जो उस के अजनक नीलादि अन्य अर्थव्यक्ति हैं उन से भी समानाकार होता है, इस प्रकार जनक और अजनक दोनों नील अर्थ का नील ज्ञान से सारूप्य जब समान रूप से हैं तब क्या कारण है कि वह नीलज्ञान उस के योग्यदेश में रहे हुए नीलादि अर्थ को ही विषय करने वाला माना जाता है, अयोग्य देशवर्ती नीलादि अर्थ को नहीं ? इन सभी प्रश्नों के उत्तर में तत्तद् नीलादि अर्थ और तत्तद् नीलज्ञानादि में योग्यता का स्वीकार किये विना उगारा नहीं हो सकता । फलित यह हुआ कि समानरूप से तत्सारूप्य आदि के होने पर भी नीलादिप्रत्यक्ष में नीलविषयता का नियमन योग्यता से ही किया जा सकता है इसलिये सर्वत्र अर्थ का नियम (यानी तटज्ञान में तद्ग्राहकता का नियम) योग्यता से ही करना होगा। प्रस्तुत में भी प्रत्यक्ष की तरह ऊह में व्याप्ति का प्रतिबन्ध (= सम्बन्ध) योग्यता से ही सिद्ध मानना होगा । ऐसा नहीं मानेंगे तो व्याप्तिग्रह का अन्य कोई उपाय न बचने से अनुमानादि व्यवहारों का उच्छेद होने की आपत्ति होगी। यदि कहा जाय कि - 'व्याप्ति का निश्चय योग्यता के द्वारा तर्क से होगा, किन्तु उस योग्यता का निश्चय कौन से प्रमाण से करेंगे ? अगर अन्य तर्क से करेंगे तो वहाँ भी योग्यता के निश्चय के लिये अन्य तर्क की आवश्यकता.....इस प्रकार अनवस्था दोष आयेगा' - तो यह नियुक्तिक है क्योंकि लिंगद्वारा अनुमान की उत्पत्ति में जैसे व्याप्ति का निश्चय आवश्यक होता है वैसे तर्क द्वारा व्याप्ति के निश्चय में सिर्फ योग्यता का होना आवश्यक है 'उस का निश्चय भी आवश्यक हो' ऐसा नहीं है । प्रत्यक्ष से अर्थपरिच्छेद में भी योग्यता का रहना आवश्यक होता है, उस योग्यता से आलिंगित का ही प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है, वहाँ योग्यता का निश्चय आवश्यक नहीं होता, इसी तरह तर्क भी अपनी कारण सामग्री से उत्पन्न होता हुआ नियतार्थ प्रकाशन योग्यता के साथ ही उत्पन्न होता है, वहाँ भी योग्यता का निश्चय जरूरी नहीं है। ★ विकल्प में सामान्यग्राहकत्व का समर्थन ★ पहले जो यह कहा था कि हमारे जैन मत में विकल्प का आभिनिबोधिक प्रत्यक्ष प्रमाणज्ञान में अन्तर्भाव है उस के ऊपर प्रतिवादी कहता है - 'स्वलक्षणग्राही दर्शन के बाद होने वाला विकल्प स्पष्टावभासी नहीं होता इस लिये उस से सामान्य का ग्रह भी शक्य नहीं है। तात्पर्य, व्यापक तौर पर अग्निसामान्य की धूमसामान्य में व्याप्ति का ग्रह विकल्प से अशक्य है । [प्रतिवादी का यह ख्याल है कि अस्पष्टावभासी ज्ञान में सामान्य गृहीत नहीं होता] ।' – किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि समानाकारधारी अर्थ के सम्मुख अवस्थित होने पर आँख खोल के देखनेवाले को स्पष्टरूप से ही धूमादिसामान्य का अवभास होने का अनुभव है । प्रतिवादी : यह स्पष्टावभास विकल्प से नहीं होता, किन्तु सविकल्प-निर्विकल्प दोनों ज्ञान की एकसाथ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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