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________________ १८२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् क्षणस्य परिच्छेदकः स्यात् । परिच्छेदस्य ज्ञानधर्मत्वात् अप्रसंगे, नीलज्ञानमपरनीलज्ञानपरिच्छेदकं स्यात् । तदुत्पत्तिसारूप्याभ्यां समुदिताभ्यां प्रत्यक्षस्य सर्वथापरिच्छेदकत्वे नीलज्ञानं समनन्तरनीलज्ञानस्य परिच्छेदकं स्यात् । 'तदुत्पत्ति-सारूप्यसद्भावेऽपि समानार्थसमनन्तप्रत्ययस्य, न तद् ग्राहकं व्यवस्थाप्यते तदध्यवसायाभावात्' इति चेत् ? ननु 'तदुत्पत्त्यादिके प्रतिबन्धे समानेप्यर्थ एव तदध्यवसायो न पुनः समनन्तरप्रत्यये' इति पृष्टेन भवता सैव योग्यता नियामिका वक्तव्या। अपि च, "विषयेन्द्रियमनस्कारेषु विज्ञानकारणत्वेनाऽविशिष्टेषु विषयस्यैवाकारं बिभर्ति विज्ञानं नेन्द्रियादेः' तथा 'नीलाद्यर्थसारूप्याऽविशेषेऽपि नीलज्ञानं योग्यदेशस्थमेव नीलाद्यर्थं विषयीकरोति नान्यम्' इत्यत्रापि योग्यतैव शरणम् । अतोऽस्या एव तत्सारूप्यादिविशेषेऽप्यवश्यमभ्युपगमनीयत्वात् अर्थप्रतिनियमः सर्वत्राभ्युपगमनीयः इति प्रत्यक्षवदूहोऽपि नेत्रादि इन्द्रिय से भी उत्पन्न होता है, यदि तत्परिच्छेदकता में तदुत्पत्ति को नियामक कहेंगे तब तो इन्द्रिय से उत्पन्न होने के कारण प्रत्यक्ष इन्द्रियव्यवसायी हो जाने की आपत्ति होगी । यदि ऐसा कहें कि - 'घट और इन्द्रिय दोनों से प्रत्यक्ष ज्ञान की उत्पत्ति होने पर भी प्रत्यक्ष ज्ञान घट से सरूप यानी घटाकार होता है इसलिये घट का ही वह परिच्छेदक होता है, इन्द्रियसरूप (= इन्द्रियाकार) नहीं होता इसलिये इन्द्रियपरिच्छेदक नहीं होता । इस प्रकार सारूप्य की महिमा मानेंगे, योग्यता की नहीं' - तो यहाँ एक नीलक्षण में अन्यनीलक्षण के परिच्छेदकत्व की आपत्ति आयेगी क्योंकि नीलात्मक होने से दोनों सरूप है । यदि कहें कि - 'परिच्छेद' ज्ञान का धर्म है, नील क्षण तो बाह्यवस्तुरूप होने से उस में उक्त आपत्ति नहीं आयेगी' - तो एक नीलज्ञान में अन्य नीलज्ञान के परिच्छेदकत्व की आपत्ति क्यों नहीं होगी ? ★तदुत्पत्ति-तत्सारूप्य-तदध्यवसायित्व ये तीनों निरर्थक ★ यदि ऐसा हो कि - "सिर्फ सारूप्य ही परिच्छेदकत्व का नियामक नहीं है किन्तु तदुत्पत्ति और तत्सारूप्य इन दोनों के समुदाय से तत्परिच्छेदकत्व का नियमन होता है, एक सन्तानगत नील-ज्ञान और अन्य संतानगत नीलज्ञान में जन्य-जनकभाव न होने से सिर्फ सारूप्य को ले कर उक्त आपत्ति नहीं दी जा सकती' । तो एक सन्तान में उत्तरक्षण के नीलज्ञान में उस के समनन्तर यानी पूर्वक्षण वाले नीलज्ञान के परिच्छेदकत्व की आपत्ति होगी, क्योंकि वहाँ सरूपता तो है ही और तदुत्पत्ति भी है। अभी आप कहेंगे कि - 'समानविषयक समनन्तरप्रत्यय में यद्यपि तदुत्पत्ति और सारूप्य दोनों ही होते हैं किन्तु वहाँ जो नीलज्ञान होता है वह नीलरूप का ही अध्यवसायी होता है, समनन्तर नीलज्ञान का अध्यवसायी नहीं होता । यहाँ तदध्यवसायित्व एक और नियामक है। इस लिये नीलज्ञान को नीलज्ञान का ग्राहक होने की आपत्ति नहीं होगी ।' - तो यहाँ एक प्रश्न होगा कि तदुत्पत्ति और तत्सारूप्य दोनों के रहने पर भी क्या कारण है कि वह नीलज्ञान नीलरूप अर्थ का ही अध्यवसायी होता है, नीलज्ञान का अध्यवसायी नहीं होता हैं ? यहाँ आप को भी वही योग्यता भगवती को सीर झुकाना होगा। उपरांत, जैसा तदध्यवसायित्व के लिये प्रश्न है वैसा ही तत्सारूप्य के लिये भी शक्य है - जब विज्ञान इन्द्रिय-विषय-अन्त:करण आदि अनेक कारण समुदाय से उत्पन्न होता है तब यह प्रश्न होगा कि क्या कारण है कि वह विज्ञान विषयाकार को ही आत्मसात् करता है, इन्द्रियाकार को नहीं ? दूसरा प्रश्न भी हो सकता १ - रूपालोक-मनस्कार-चक्षुभ्यः सम्प्रवर्तते । विज्ञानं मणि-सूपांशु-गोशकृद्भय इवानलः ॥ इति - अनेकान्तजपपताकापां टी० पृ० २०६ - पं० १९ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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