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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ १८१ स चाभिनिबोधिकं ज्ञानमस्मदर्शने प्रसिद्धमस्पष्टतया श्रुतं वा ऊहशब्दविशेषवाच्यतया, न प्रत्यक्षपरोक्ष-प्रमाणद्वयव्यतिरिक्तं तत् प्रमाणान्तरम् । प्रत्यक्षानुमानवादिनां तु व्याप्तिग्राहकं प्रमाणान्तरं प्रसक्तम् प्रत्यक्षानुमानाभ्यां व्याप्तिग्रहणाऽसंभवात् । न च प्रतिबन्धग्राहकस्य प्रमाणस्य स्वार्थे व्यभिचारः प्रतिबन्धाऽभावात् इति वक्तव्यम् तत्र, योग्यतालक्षणप्रतिबन्धसद्भावात् । प्रत्यक्षेऽपि हि स्वार्थपरिच्छेदो योग्यतात एव न पुनस्तदुत्पत्त्यादेः । तदुत्पत्तिप्रतिबन्धात् प्रत्यक्षस्य स्वार्थपरिच्छेदकत्वे इन्द्रियस्यापि तत्परिच्छेद्यत्वप्रसक्तिः । तत्सारूप्यात्तस्य तत्परिच्छेदकत्वे नीलक्षणोऽपरनीलउसी अन्य अनुमान से होने का मानेंगे - तब तो इतरेतराश्रय दोष प्रसक्त होगा । कारण, व्याप्तिग्रह होने पर अन्य अनुमान की सफल प्रवृत्ति होगी और अनुमान की प्रवृत्ति के होने पर ही उस व्याप्ति का ग्रहण होगा जिस से कि प्रथम अनुमान रूप परिशेषप्रमाण खडा करना है। उपरोक्त चर्चा से अब यही निष्कर्ष फलित होता है कि अनुमान के प्रामाण्य को सुरक्षित रखने के लिये बौद्धवादी को व्यापकतौर पर तज्जातीय सकल व्यक्तियों के बीच व्याप्तिरूप प्रमेय का ग्रहण संगत करने के लिये उस के ग्राहकरूप में विकल्प रूप नया प्रमाण अंगीकार करना होगा जो कि प्रत्यक्ष का फल होगा और अपने विषय का अविसंवादी होगा । ★ व्याप्तिग्राहक विकल्प प्रमाण का अन्तर्भाव ★ हमारे जैन मत में तो ऐसी प्रमाणाधिक्य की आपत्ति को अवकाश ही नहीं है क्योंकि हमारे यहाँ प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रमाण माने गये हैं। यह जो व्याप्तिग्राहक विकल्प है उस का अन्तर्भाव या तो आभिनिबोधिक प्रत्यक्ष प्रमाणात्मकज्ञान में कर सकते हैं, या 'उह' शब्दविशेषवाच्य जो श्रुतज्ञान रूप परोक्षप्रमाण है उस में कर सकते हैं। तात्पर्य यह है कि हम आभिनिबोधिक ज्ञानान्तर्गत विकल्पात्मक प्रत्यक्ष ऐसा मान सकते हैं जो भूतभावि सभी व्यक्तियों के साथ सादृश्यग्रहणमूलक व्याप्तिग्रह कर सकता है, चूंकि हम ऐसा नहीं मानते हैं कि प्रत्यक्षगृहीत का ही विकल्प से ग्रहण हो । यदि इस प्रकार का व्याप्तिग्रह कभी कभी स्पष्टावभासी न होने के कारण प्रत्यक्षात्मक उसे मानने में स्वरस न हो तो वह तर्कात्मक परोक्षप्रमाणरूप भी माना जा सकता है। उस का स्वरूप यह है कि 'जितने भी धूम होते हैं वे सब अग्नि के होने पर ही होते हैं और अग्नि के न होने पर कभी नहीं होते' । इस प्रकार व्याप्ति को तर्कप्रमाण का विषय मानने में यदि कोई ऐसा कहें कि - 'ऐसा व्याप्तिग्राही प्रमाण अपने अर्थ का व्यभिचारी है, यानी व्याप्ति ही उस का विषय है ऐसा नियम नहीं हो सकता क्योंकि इस प्रमाण को व्याप्तिरूप विषय के साथ कोई प्रतिबन्ध यानी संबन्ध नहीं है' - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यहाँ 'योग्यता' ही सम्बन्ध के रूप में मौजूद है। अर्थात् व्याप्ति में रही हुयी जो तर्कग्रहणयोग्यता है वही तर्क और व्याप्ति का प्रतिबन्ध (संनिकर्ष) है। ★ योग्यता सम्बन्ध का समर्थन ★ इस बात पर ध्यान देने जैसा है कि प्रत्यक्ष भी अपने नियत विषय का अवबोध योग्यता की महिमा से ही कराता है, न कि 'नियत विषय से उत्पत्ति' आदि की महिमा से । अर्थात् घट से उत्पन्न होने के कारण उस का प्रत्यक्ष घटपरिच्छेदक होता है यह बात नहीं है किन्तु घटनिष्ठ योग्यता की महिमा से उस का प्रत्यक्ष घटपरिच्छेदक होता है यह बात सही है। प्रत्यक्ष जैसे घट से उत्पन्न होता है वैसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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