SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७८ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् न स्यात् तद्रूपत्वे त्वात्मनोऽनुमानात् क्षणविवेकनिश्चयमात्रेणैव तस्य निरुद्धत्वान्न तनिमित्ता संस्कारकारणेषु प्रवृत्तिः । अथैकप्रत्ययलक्षणं सहजमात्मदर्शनं न भवति न तर्हि नैरात्म्याभ्यासादप्यविरोधात् तनिवृत्तिरिति व्यर्थो नैरात्म्याभ्यासः स्यात् । अतो न साक्षात् पारम्पर्येण वाऽक्षणिकसमारोपव्यवच्छेदकत्वात् क्षणिकानुमानस्य प्रामाण्यम् । अध्यक्षप्रभवविकल्पेऽपि चैतत् समानम् निश्चये तत्रापि समारोपाभावात् । न च प्रवृत्तसमारोपाऽव्यवच्छेदकत्वाद् विकल्पस्या:प्रामाण्यमिति वक्तुं युक्तम् प्रवृत्तसमारोपव्यवच्छेदकत्वेन प्रामाण्य(ण्ये) विशेषतोदृष्टानुमानस्यापि प्रामाण्यप्रसक्तिः तस्यापि तद्रूपत्वात् । न च प्रवृत्तः समारोपो व्यवच्छेत्तुं शक्यः अभावस्य निर्हेतुकत्वाभ्युपगमात् । न च प्रत्यक्षपृष्ठभाविविकल्पमपहायाऽनुमानस्यैव प्रामाण्यम् तस्य लिंगजत्वात् इतरस्य च तद्विपर्ययादिति वाच्यम् विशेषतोदृष्टानुमानस्य लिंगजत्वेन प्रामाण्यप्रसक्तेः । न चानुभवउदित होता आया है उस की निवृत्ति नहीं होती अत: आत्मदर्शनमूलक स्व और स्वकीय में राग भी तदवस्थ रहता है । उस से सुखाभिलाष भी होता है । फलतः सुखार्थी की सुख-दुख के साधनों की प्राप्ति-परिहार के लिये प्रवृत्ति होने में कोई भी विरोध नहीं है ।' - तो यह ऐसा तभी मान सकते हैं यदि एकत्वाध्यवसाय और वह सहज आत्मदर्शन, इन दोनों में कुछ फर्क हो । जब आप ज्ञानसन्तति में एकत्व के अध्यवसाय को ही आत्मदर्शनस्वरूप मानते हो तब तो अनुमान से क्षणभेद का निश्चय हो जाने पर उस एकत्वप्रतीति का अवरोध हो जाने से आत्मदर्शन भी अवरुद्ध हुये विना नहीं रह सकता, फिर आत्मदर्शनमूलक संसारसर्जक कृत्यों में प्रवृत्ति भी बंद हो जानी चाहिये । यदि वह सहज आत्मदर्शन एकत्वप्रतीतिरूप नहीं मानते तब तो क्षणभेदनिश्चय की तरह नैरात्म्याभ्यास के साथ भी उसका विरोध सिद्ध न होने से नैरात्म्याभ्यास के लिये आयास करना निरर्थक सिद्ध होगा, क्योंकि पुन: पुन: क्षणभेद का निश्चय ही नैरात्म्याभ्यासरूप होता है । ★ विकल्प में प्रामाण्य अपरिहार्य ★ उपरोक्त का निष्कर्ष यह है कि अक्षणिकसमारोप के व्यवच्छेद होने के नाते क्षणिकत्वानुमान को प्रमाण मानना गलत है। और समारोप का अभाव तो प्रत्यक्षजन्य विकल्पज्ञान के बाद भी रहता होने से अनुमान की तरह विकल्प ज्ञान को भी प्रमाणरूप से स्वीकार लेने की आपत्ति अपरिहार्य बन जाती है। यदि ऐसा कहें कि - "विकल्प के बाद समारोप का अभाव रहता होने पर भी 'उस के पहले समारोप चला आता हो और विकल्प के बाद उस की उत्पत्ति की परम्परा तूट जाय' इस प्रकार का समारोपव्यवच्छेद, जो कि अनुमान के बाद होता है, विकल्प के बाद नहीं होता – क्योंकि विकल्प के पहले तो उस वस्तु का प्रत्यक्ष ही हुआ रहता है जिस को नामादि योजना कर के विकल्प प्रकाशित करता है ।' - तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि यहाँ विशेषतोदृष्टानुमान को प्रमाण मानने की आपत्ति आयेगी - वह इस प्रकार : प्रत्यक्ष से अग्नि का दर्शन होने के बाद कभी उसी अग्नि के बारे में, धूम लिंग को देख कर 'यह वही अग्नि है' ऐसा अनुमाननिश्चय होता है । इस अनुमान को बौद्ध मत प्रमाण नहीं मानता क्योंकि लिंगजन्य होने से वह प्रत्यक्षरूप नहीं है और उस धूम के साथ उसी अग्नि का पूर्व में कभी सम्बन्धग्रहण नहीं हुआ है इसलिये वह अनुमानप्रमाण भी नहीं है । फिर भी यहाँ 'यह वही नहीं' ऐसे समारोप का व्यवच्छेद तो होता ही है । अत: इस अनुमान को भी प्रमाण मान लेना होगा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy