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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
१७७ न ह्यात्मनाऽनुमानानानात्वनिश्चयलक्षणे नैरात्म्यदर्शने सति एक्प्रत्ययलक्षणमात्मदर्शनं सम्भवति विवेकाऽविवेकग्रहणयोरेकत्वविरोधात्, तदभावानात्मीयग्रहः, तदभावे च तत्पूर्वकस्य रागादेरनुत्पत्तेः कथमभिलषिताऽनभिलषितसाधनयोस्तदध्यवसायेन प्राप्ति-परिहाराय प्रवृत्तिरुपपद्येत ?! अनाश्रवचित्तोत्पत्तिप्रबन्धलक्षणमुक्तिहेतौ च मुमुक्षोर्यत्नो विफलः स्यात् नैरात्म्याद्यभ्यासमन्तरेणाप्यनुमानात् क्षणिकत्वनिश्चयमात्रेणैव मुक्तिसिद्धेः । 'आत्मदर्शनस्य सहजस्याऽहानेस्तनिमित्तात्मात्मीयस्नेहपूर्वकसुखाभिलाषवतः सुख-दुःखसाधनेष्वादान-परिहारार्था प्रवृत्तिः अविरुद्धा' इति चेत् ? स्यादेतत् यदि तत्सहजमात्मदर्शनमेकप्रत्ययलक्षणं का) अवधारण कर लिया है उस को उसके विरोध के कारण तथाविध अक्षणिकत्व का भ्रम हो नहीं सकता, जिस को विशेष का अवधारण न हो उसे ही वह उत्पन्न होना चाहिये । उपरांत, अक्षणिकत्व अवभास को यदि आप मानसरूप मानेंगें तो अन्य किसी वस्तु का स्मरण होगा उस वक्त अक्षणिकत्व का अवभास उत्पन्न नहीं हो सकेगा । कारण, एक साथ दो ज्ञान की उत्पत्ति नहीं मानी जाती । स्मरण भी मानस और अक्षणिकत्व का अवभास भी मानस, दो मानस विकल्प की एक साथ उत्पत्ति नहीं होने का नियम है । यदि एक साथ दो ज्ञानों की उत्पत्ति मान्य कर लेंगे तो अश्व विकल्प की उत्पत्ति के समय में ही गाय दर्शन की सामग्री गायदर्शन को भी उत्पन्न करेगी और यह गायदर्शन विकल्पाक्रान्त हो जाने पर, आप जो सिद्ध करना चाहते हैं कि दर्शन कल्पनापोढ यानी कल्पनाविनिर्मुक्त होता है वह सिद्ध नहीं हो सकेगा। इस तरह अनुमान को समारोप-व्यवच्छेदक मानने पर यही फलित होता है कि अनुमान से भेद का निश्चय हो जाने पर, अक्षणिकत्व का समारोप किसी भी तरीके से नहीं बचना चाहिये । और समारोप के न बचने पर, जिस व्यक्ति को अनुमान से पूर्वोत्तर क्षणों में भेद का निश्चय हो चुका है उस की अब आत्मविषयक या आत्मीय धनादि विषयक समारोपमूलक प्रवृत्ति भी नहीं होनी चाहिये । 'पूर्वोत्तरज्ञानक्षण सर्वथा अन्वयशून्य एवं भिन्न ही है, उन में अन्वयी कोई आत्मा है ही नहीं (जिस के पर स्नेह किया जाय) ऐसा नैरात्म्यदर्शन हो चुकने पर 'वही मैं हूँ' ऐसा एकत्वाध्यवसायी आत्मदर्शन होने का सम्भव ही नहीं हैं क्योंकि पूर्वापरक्षणों में विवेकग्रहण(=भेदग्रह) और अविवेकग्रहण(=अभेदग्रह) इन दोनों का एक व्यक्ति में विरोध होता है । एकात्मदर्शन रुक जाने पर एकात्मग्रहणमूलक जो धनादि में ममत्व का ग्रह होता था वह भी निवृत्त हो जायेगा । ममत्वग्रह मिट जाने पर जो ममत्वभावना मूलक राग-द्वेष होते थे वे भी निवृत्त हो जायेंगे । इस प्रकार एक बार भेदअनुमान हो जाने पर राग-द्वेष-निवृत्ति भी हो गयी तब पीछे जो इष्ट साधन में इष्ट-साधनता के अध्यवसाय मूलक प्राप्ति के लिये प्रवृत्ति होती है और अनिष्ट साधन में अनिष्टसाधनतामूलक जो उस के परिहार के लिये नैरात्म्यदर्शी की भी चेष्टा होती है वह कैसे संगत होगी ?
★ नैरात्म्य अभ्यास में निष्फलता की आपत्ति ★ दूसरी बात यह है कि क्षणिकत्व के अनुमान मात्र को अगर समारोपव्यवच्छेदक मानेंगे तो अक्षणिकत्वसमारोप व्यवच्छेद द्वारा पूर्वोक्त से राग-द्वेष उच्छेद हो जाने पर मुक्ति भी प्राप्त हो सकती है, फलत: अनाश्रवचित्तजन्मसन्ततिस्वरूप मुक्ति के हेतुभूत नैरात्म्यादि के अभ्यास के लिये जो मुमुक्षु आयास करता है वह नितान्त निष्फल बन जायेगा।
यदि ऐसा कहा जाय कि - 'क्षणिकत्वानुमान से अक्षणिकत्वसमारोप का व्यवच्छेद होने पर वस्तु में कल्पनामूलक एकत्वादि का दर्शन जो होता था उस का व्यवच्छेद होता है, किन्तु सहज वासनामूलक जो आत्मदर्शन
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