________________
१७६
श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् यी युक्तः ? समारोपनिमित्तसादृश्यविरोधिविवेकावधारणसद्भावात् वह्निसनिधानाद् रोमहर्षादिविशेषवद् यथार्थनिश्चये विपर्यासानुपलब्येश्च । अथ यथा निश्चितैकत्वस्यापि पुंसो द्विचन्द्रादिम्रान्तिरक्षजत्वान निवतते, तथाऽक्षणिकभ्रान्तिरपि । नन्वेवमक्षणिकभ्रान्तेरक्षजत्वे न किञ्चिदपि प्रत्यक्षमभ्रान्तं स्यात् । 'पश्यन्नपि न पश्यति' [ ] इति च धर्मकीर्त्तिवचन विरुध्येत ।
अथाऽक्षणिकत्वभ्रान्तिर्मानसी मरीचिकाचक्रे तोयादिभ्रान्तिवत् । तथापि नावधारितविशेषस्योत्पघेत, अनवधारितविशेषस्यैव तदुत्पत्तेः । अक्षणिकावभासस्य मानसत्वे वस्त्वन्तरस्मरणसमये उत्पत्तिश्च न स्यात्, विकल्पद्वयस्य युगपदनुत्पत्तेः, उत्पत्तौ वाऽश्वं विकल्पयतोऽपि गोदर्शनाद् दर्शने कल्पनाविरहसिद्धिरयुक्ता स्यादिति क्षणविवेकनिश्रयेऽवश्यंभाव्यक्षणिकसमारोपाभावः । तत्सद्भावे च न कचिदनुमानानिश्चितनानात्वस्याऽऽत्माऽऽत्मीयभावयोः प्रवृत्तियुक्ता । को अवकाश नहीं होगा।
यदि ऐसा कहा जाय कि- 'क्षणिकत्व के अनुमान से उस अक्षणिकसमारोप की निवृत्ति तो हो जाती है जो पहले दृढता से भरपूर था, लेकिन फिर भी पूर्वोत्तर क्षण के सादृश्य के कारण ऐसा अक्षणिक समारोप उत्पन्न होता रहता है जो स्खलित यानी शिथिल स्वरूप वाला होता है (यानी जिस में 'यह ऐसा ही है ऐसी दृढता नहीं होती ) अर्थात् अनुमानात्मक निश्चय और स्खलित समारोप में विरोध नहीं मानते।'- तो यह गलत कथन है; क्योंकि पूर्वोत्तर क्षण में भेद का अवधारण न होना यही सादृश्य है, क्षणिकत्वानुमान से जब भेद का अवधारण हो गया तब ऐसे सादृश्य का सम्भव ही नहीं है तो फिर उसके आधार पर स्थायित्व के समारोप की उत्पत्ति को अवकाश ही कहाँ है ? जैसे जाडे की ऋतु में शर्दी से रोंगटे खड़े होते हैं किन्तु अग्नि के सांनिध्य में नहीं होते क्योंकि अग्नि उसका विरोधी है, इसी प्रकार, समारोप के निमित्तभूत (भेदानवधारणस्वरूप) सादृश्य के विरोधी क्षणविवेक यानी भेद का अवधारण संनिहित हो तब क्षणिकत्व निश्चय के यथार्थ होने से वहाँ अक्षणिकत्व के विपर्यास की सम्भावना ही नहीं हो सकती ।
यदि ऐसा कहा जाय- 'चन्द्र एक है' ऐसे दृढ निश्चयवाले पुरुष को भी (अवस्थाविशेष में) अपने नेत्र से दो चन्द्र दिखाई देते हैं, यद्यपि यह भ्रान्ति है किन्तु इन्द्रियजन्य होने के कारण पूर्वकालीन एक चन्द्र का ज्ञान उसका बाधक नहीं होता | मतलब, इन्द्रिय के कारण ही ऐसी भ्रान्ति स्थायित्व की भी हो सकती है।'तो यहाँ बडी आपत्ति होगी, यदि आप इन्द्रियजन्यता के आधार पर अक्षणिकत्व की भ्रान्ति की उपपत्ति करना चाहते हैं तब तो कोई भी प्रत्यक्ष अभ्रान्त नहीं रहेगा क्योंकि पूरा प्रत्यक्ष इन्द्रिय जन्य ही होता है । उपरांत, 'पश्यन्नपि न पश्यति' = देखता हुआ भी (मानो) नहीं देखता है' इस धर्मकीर्ति के वचन का भी यहाँ विरोध उपस्थित होगा । [कारण, धर्मकीर्ति को यह कहना है कि (पश्यन्नपि=) यथार्थ निश्चय होने पर, विपर्यास की सामग्री दृष्टा में उपस्थित रहने पर भी (न पश्यति-) विपर्यासदर्शन नहीं होता है ।
★मानसिक अक्षणिकत्वभ्रम की भी दुर्घटता* यदि ऐसा कहा जाय कि - 'अक्षणिकत्व का भ्रम जो होता है वह चाक्षुषादि प्रत्यक्ष रूप नहीं किन्तु मानस प्रत्यक्षरूप होता है जैसे कि मरुधर की सूर्यकिरणतप्त चमकिली रेतभूमि में जल का भ्रम होता है तो इस पर भी वही बात है कि भले आप इस भ्रम को मानसरूप मानें, किन्तु जिसने विशेष का (क्षणिकत्व
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org