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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
१७९ विषयमात्राध्यवसायित्वेऽध्यक्षपृष्ठभाविविकल्पानामभ्युपगम्यमाने व्याप्तिसिद्धिरपि परस्योपपद्यते, सनिहितमाअप्रतिग्राहित्वेनाऽध्यक्षस्य तद्वायपारानुसारिणो विकल्पस्यापि सर्वाक्षेपेण साध्य-साधनयोर्व्याप्तिग्राहकत्वाऽसम्भवात् । तथा च देशान्तरादावुपलभ्यमानं साधनमनिश्चितसाध्यप्रतिबन्धं तत्र साध्यं न गमयेत् ।
___ अथ 'कार्य धूमो हुतभुजः कार्यधर्मानुवृत्तितः' [प्र. वा. ३-३४] निश्चितः स देशान्तरादावप्यनलाभावे भवंस्तत्कार्यतामेवातिक्रमेदित्याकस्मिकोऽग्निनिवृत्तौ न क्वचिदपि निवर्तेत, नाप्यवश्यंतयाऽग्निसद्भाव एव तस्य भाव उपलभ्यते । तथा, व्यापकाभावेऽपि तदात्मनो व्याप्यस्याभावे न कदाचित् साधनं तत्स्वभावतया प्रतीयेतेति । नन्वेवं व्याप्तिसिद्धावपि तनिश्चयकालोपलब्धेनैव स्यात् व्यापकेनास्य व्याप्तिः
दूसरी बात : प्रवृत्त समारोप का अभावात्मक व्यवच्छेद तो नाशरूप होने से निर्हेतुक होता है अत: क्षणिकत्व अनुमान उस का व्यवच्छेदक भी नहीं हो सकता । (यह पहले भी कह आये हैं ।) ऐसा भी नहीं कह सकते कि - ‘अनुमान तो लिंगजन्य होने से प्रमाण हो सकता है, प्रत्यक्षपृष्ठभावि विकल्प लिंगजन्य नहीं किन्तु प्रत्यक्षजन्य होने से अप्रमाण है' - क्योंकि अभी कहा है कि विशेषतोदृष्टानुमान भी लिंगजन्य होने से उस में प्रामाण्य प्रसक्त हो जायेगा । और भी एक दोष यह है कि विकल्प को अप्रमाण ठहराने के लिये आप उसे गृहीतमात्रग्राही दिखाते हैं किन्तु यह नहीं सोचते कि यदि प्रत्यक्षपृष्ठभावि विकल्पों को यदि अनुभव(=प्रत्यक्ष) के विषय मात्र के अध्यवसायी मानेंगे तब आप के मत में व्याप्ति का ग्रहण भी अशक्य बन जायेगा । कारण, प्रत्यक्ष तो सिर्फ निकटस्थ वस्तु का ही ग्राहक होता है, उस के व्यापार से उत्पन्न होने वाला विकल्प भी तब निकट स्थित वस्तु का ही अध्यवसायी होगा, तब दूरस्थ, अतीत-अनागत सभी साध्य-हेतु व्यक्तियों का उपसंहार कर के व्यापक तौर पर जो साध्य-साधन में व्याप्तिग्रह करना है वह नहीं हो सकेगा । फलत: अन्य देश, अन्यकाल में जब धूमादि साधन का उपलम्भ होगा, तब उस में अपने अग्निआदि साध्य की व्याप्ति का निश्चय शक्य न होने से वहाँ अग्निआदि साध्य का ग्रहण नहीं हो सकेगा।
★ व्यापकरूप से व्याप्तिग्रह-शक्यता की शंका-उत्तर ★ बौद्ध : प्रमाणवार्त्तिक में कहा है कि कारण के अन्वयव्यतिरेक का अनुसरण करना इसे कार्यधर्म कहा जाता है और जो जिसके कार्यधर्म का अनुवर्तन करता है वह उस का कार्य कहा जाता है । धूम अग्नि के कार्यधर्म का अनुवर्तन करने वाला होने से वह अग्नि का कार्य माना जाता है । अभी जो आपने कहा कि 'देशान्तरवर्ती धूम से साध्य अग्नि का बोध नहीं हो सकेगा' वह इसलिये ठीक नहीं है कि अग्नि के कार्यरूप में निश्चित होने वाला देशान्तरस्थित धूम अगर अग्नि के विना ही वहाँ पैदा हो जाय तब तो उस में अग्निकार्यता का ही भंग हो जाय और तब वह अहेतुक होगा और 'अग्नि के अभाव में धूम का अभाव' भी निश्चित नहीं किया जा सकेगा, एवं 'अग्नि के होने पर ही धूम हो सकता है' ऐसा अवश्यंभाव भी जारी रहेगा नहीं । उपरांत अग्नि और धूम के बीच व्यापक-व्याप्यभाव का भंग हो जाने पर व्यापक (अग्नि) के अभाव में भी व्याप्य की सत्ता सम्भवित हो जाने से, स्वभावहेतुक अनुमान भी तूट जायेगा क्योंकि व्यापक वृक्ष के न रहने पर भी उसके साथ तादात्म्यभाव रखनेवाला व्याप्य शिंशपा की सत्ता हो सकेगी फलत: किसी की भी स्वभाव हेतु के रूप में स्थिति ही न बन पायेगी । निष्कर्ष यह है कि विकल्प से देशान्तरवर्ती साधन में भी उक्त तर्क के सहारे व्यापकतौर पर व्याप्ति का ग्रह शक्य है ।
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